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Sunday, March 15, 2020

मूल अधिकार

Fundamental rights

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Fundamental rights




राष्ट्र की एकता व आम नागरिकों के हित के लिए किसी भी राज्य द्वारा अब तक बनाये गये मानव अधिकारों के चार्ट सर्वाधिक विस्तृत चार्टर संविधान के भाग 3 में शामिल है।मूल अधिकारों के सम्बन्ध में संविधान में कुल 23 अनुच्छेद है। अनुच्छेद 12 से 30 व 32 से 35 तक दिये गये 
 भारतीय संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को 7 मूल अधिकार प्रदान किये गये थे किन्तु 44वें संविधान संशोधन1978 द्वारा सम्पति के अधिकार को मूल अधिकारों से विलोपित कर एक कानूनी अधिकार के रूप में ही सम्मिलित किया गया है। इस तरह मूल अधिकारों को छ: श्रेणियों के तहत गारन्टी प्रदान की गई है
 1 समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18)
2.स्वतन्त्रता का अधिकार (19 से 22)
3.शोषण के विरुद्ध अधिकार (23 से 24)
4.धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार (25 से 28)
5.सांस्कृतिक एवं शिक्षा संबंधी अधिकार (29 से 30) 
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (32) 

1 समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18)

भारतीय संविधान में प्रत्येक नागरिक को कानून के समक्ष समानता, राज्य में रोजगार के अवसरों की समानता एवम सामाजिक समानता प्रदान की गई है। इस हेतु संविधान में
 निम्न प्रावधान किये गये हैं

 (i) कानून के समक्ष समानता

  अनच्छेद 14 के तहत राज्य क्षेत्र में राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करगा। विधि के समक्ष सभी समान हैं और बिना किसी विभेद क विधि के समान संरक्षण के हकदार हैं। 

(ii)धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के
आधार पर विभेद का प्रतिछेद 

अनुच्छेद15 राज्यों को यह आदेश देता है कि किसी नागरिक के साथ केवल उनके धर्म , मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद न किया जावे। सभी नागरिकों को दुकानों, सार्वजनिक स्थल यथा भोजनालयों, होटलों मनोरंजन स्थलों, कुओं, तालाबों, स्नानघरों, सड़कों के प्रयोग का अधिकार प्रदान किया है। इसी अनुच्छेद में स्त्रियों व बच्चों तथा सामाजिक शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हए नागरिकों, अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के नागरिकों के लिए विशेष प्रावधान का अधिकार दिया गया है।

(iii)लोक नियोजन के विषय में अवसरों की समानता

Article 16 में इस के तहत देश के सभी नागरिकों का राज्य के अधीन नौकरी में समान अवसर प्रदान करने का अधिकार दिया गया  है। इस बारे में व्यक्ति के धर्म जाति, लिग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद नहीं किया जावेगा। किन्तु राज्य को यह अधिकार है कि वह राजकीय सेवाओं के लिए आवश्यक योग्यतांए निर्धारित कर राज्य के मूलनिवासी हो पिछड़ा वर्ग, अनुसचित जाति व जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान कर दे।  इस आरक्षण का उद्देश्य मूलतः समानता की स्थापना ही है। 

(iv)अस्पृश्यता का अंत अनुच्छेद  17 

- सामाजिक समानता बढाने हेतु संविधान में अस्पृश्यता का पूर्ण निषेध किया गया है। इसमें कहा गया है कि यदि ऐसा आचरण किया जावेगा तो दंडनीय अपराध माना जाएगा। इस अनुच्छेद का उदेश्य व्यक्ति को उसकी जाति के कारण ही अस्पृश्य माने जाने के अमानवीय आचरण को समाप्त करना है। इसे पूर्ण रूपेण समाप्त करने हेतु सरकार ने अस्पृश्यता निवारण अधिनियम 1955 का संशोधन कर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 कर दिया है। अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति निरोधक अधिनियम 1989 पारित किया है। यह कानून अस्पृश्यता के अब तक बने कानूनों में सबसे अधिक कठोर है। 

(v)उपाधियों का अंत अनुच्छेद 18

 ब्रिटिश शासन काल में सम्पत्ति व राज शक्ति के आधार पर उपाधियां प्रदान की जाती थी जो सामाजिक जीवन में भेद उत्पन्न करती थी। संविधान में सेना तथा विद्या सम्बन्धी उपाधियों के अतिरिक्त राज्य द्वारा किसी भी तरह की उपाधि दिया जाना निषेध है। इसके अलावा भारत का नागरिक राष्ट्रपति की आज्ञा बिना
विदेशी राज्य की कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा। 


2 स्वतंत्रता का अधिकार (अनु19)

(i)विचार व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अनुच्छेद 19 (1) (क) -

 भारत के सभी नागरिकों को विचार अभिव्यक्त करने, भाषण देने तथा अन्य व्यक्तियों के विचारों का प्रचार प्रसार करने की स्वतन्त्रता है। इसमें प्रेस की स्वन्त्रता " साम्मलित है। किन्तू इस अधिकार का दुरुपयोग रोकने के लिए प्रतिबन्ध भी लगाये गये हैं। इस स्वतन्त्रता पर भारत की प्रभुता व अखण्डता के पक्ष में राज्य की सुरक्षा, विदेशी के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के हित में, लोक व्यवस्था शिष्टाचार या सदाचार के हित में, न्यायालय अवमानना मानहानि, अपराध के लिए उत्तेजित करना आदि के सम्बन्ध म उचित प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। 19(2) में इस स्वतंत्रता पर कुछ सीमाएं निर्धारित है।

(ii) अस्त्र शस्त्र रहित शांतिपूर्ण सम्मेलन की स्वतन्त्रता अनुच्छेद 19 (1) (ख)

इसके तहत सभी नागरिको का शान्ति पूर्ण व बिना अस्त्र शस्त्र के सभा व सम्मेलन का अधिकार दिया गया है। इस अधिकार को भी राज्य हित या सार्वजनिक सुरक्षा हित में सीमित किया जा सकता है।19(3) में इस स्वतंत्रता पर कुछ सीमाएं निर्धारित है।

(iii)संघ व समुदाय निर्माण की स्वतन्त्रता अनुच्छेद 19 (1) (ग)

- इसके अनुसार नागरिक मिलकर अपना संगम, संघ या सहकारी सोसाइटी बना सकते हैं किन्तु राज्य हित में इसे भी प्रतिबन्धित किया जा सकता है। 19(4) में इस स्वतंत्रता पर कुछ सीमाएं निर्धारित है।

(iv) सर्वत्र आने जाने की स्वतन्त्रता अनुच्छेद 19 (1) (घ)- 


इसके अनुसार भारत के राज्य क्षेत्र में अबाध रूप से
भ्रमण का अधिकार दिया गया है। पहले जम्मू-कश्मीर इस दायरे में नहीं आता था लेकिन अब धारा 370 हटने से यह अनुच्छेद संम्पूर्ण भारत में लागू होंगे। लेकिन अनुच्छेद 19  (5) में किसी अनुसूचित जाति और जनजाति वाले राज्य जहां उनकी विशेष भाषा,लिपि, संस्कृति आदि को संरक्षण प्रदान करने के लिए अपवाद स्वरूप इस स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाई जा सकती है। जैसे नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम आदि

(v) निवास की स्वतन्त्रता अनुच्छेद 19(1) (ड.) -

 इस अनुच्छेद के अनुसार भारत राज्य क्षेत्र के किसी भाग में  निवास करने की गारन्टी दी गई है। पहले जम्मू-कश्मीर इस दायरे में नहीं आता था लेकिन अब धारा 370 हटने से यह अनुच्छेद संम्पूर्ण भारत में लागू होंगे। लेकिन अनुच्छेद 19  (5) में किसी अनुसूचित जाति और जनजाति वाले राज्य जहां उनकी विशेष भाषा,लिपि, संस्कृति आदि को संरक्षण प्रदान करने के लिए अपवाद स्वरूप इस स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाई जा सकती है। जैसे नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम आदि

(vi)वृति व व्यापार की स्वतन्त्रता अनुच्छेद 19(1) (छ)


 इस अनुच्छेद द्वारा सभी नागरिकों को वृति, आजीविका, व्यापार तथा व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। किन्तु जनहित में नशीली व खतरनाक चीजों के व्यापार करने तथा अन्य ऐसे कार्य करना जो राज्य हित में न हो को निषेध किया जा सकता है।
 अनुच्छेद 20,21,22 द्वारा व्यक्तिगत मौलिक स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था की गई है

 1. अपराधों के लिए दोष सिद्धि के विषय में सरंक्षण

अनुच्छेद 20 - इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि किसी भी व्यक्ति को उस समय तक अपराधी नहीं ठहराया जा सकता(अ) जब तक कि उसने अपराध के समय लागू किसी  कानून का उल्लंघन न किया हो।
(ब) किसी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक बार से अधिक दण्डित नहीं किया जा सकता।
(स) किसी व्यक्ति को अपराध करने के समय निर्धारित
सजा से अधिक सजा भी नहीं दी जा सकती। 

2.जीवन व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का संरक्षण अनुच्छेद 21

इसके अनुसार किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर अन्य किसी प्रकार से वंचित नहीं किया जा सकता। 44 वें संविधान संशोधन 1979 द्वारा इस अधिकार को और अधिक प्रभावशाली बना दिया गया है। अब आपातकाल में भी जीवन व व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकारों को सीमित नहीं किया जा सकता। इसे प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार भी कहा जाता है। 

3.शिक्षा का अधिकार

संविधान के 86 वे संशोधन 2002 अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 21क जोड़ कर शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया है। इसे राज्य के नीति निर्देशक तत्वों से हटा लिया गया है। इसके अनुसार राज्य के 6 से 14 वर्ष के आयु के सब बच्चों को निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा कानूनी रूप से स्वीकृत तरीके से प्रदान करनी होगी। इसी में यह भी कहा गया है कि 6 से 14 वर्ष के आयु के बच्चों को शिक्षा के अवसर प्रदान करना माता पिता या अभिभावक की जिम्मेदारी है।

4.बन्दीकरण से संरक्षण

 अनुच्छेद 22 के तहत बन्दी व्यक्तियों को कुछ अधिकार दिये गये है(अ) उसे बन्दी बनाने का कारण जानने का अधिकार
(ब) उसे इच्छानुसार स्वंय के लिए कानूनी सहायता
प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है। 
(स) 24 घण्टे के अन्दर बन्दी को न्यायाधीश के सम्मुख
पेश किया जाना आवश्यक है। ये अधिकार शत्रु देश के निवासियों एवम निवारक नजरबन्दी अधिनियम के तहत गिरफ्तार किये गये अपराधियों पर लागू नहीं होंगे।
इस अनुच्छेद से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य-
हालांकि इन अधिकारों को प्रतिबंध और मजबूत करने के लिए अपवाद तथा समय-समय पर कई अधिनियम बनते रहे हैं कुछ मामलों में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विस्तार भी किया है। 
12अक्टूबर 2005 में बने सूचना के अधिकार कानून को भी अनुच्छेद 21का ही भाग माना है।
अनुच्छेद 21की स्वतंत्रताए समय के साथ-साथ विस्तृत हुई है।
मेनका गांधी बनाम भारत सरकार मामले में विदेशों में भ्रमण की स्वतंत्रता तथा नवीन जिंदल मामले में ध्वजारोहण की स्वतंत्रता आदि।
दैहिक स्वतंत्रता में सबसे बड़ा मुद्दा इच्छा मृत्यु का था सामान्यतः कोई व्यक्ति को इच्छा मृत्यु का अधिकार नहीं है लेकिन कुछ ऐसी असाध्य बिमारी से कोई व्यक्ति पीड़ित है जिसका इलाज सम्भव नहीं  है इस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने 'निष्क्रिय इच्छामृत्यु' और 'लिविंग विल' को कुछ शर्तों के साथ अनुमति दे दी है ।लिविंग विल' के लिए किसी ऐसी लाइलाज और पीड़ादायक बीमारी से जूझ रहे व्यक्ति को एक मेडिकल पैनल के समक्ष इच्छामृत्यु की अर्जी देनी होगी।
अनुच्छेद 22 में नजरबंद करने के प्रावधान और स्वतंत्रता की शर्त को सीमित करने के लिए भी समय-समय पर अधिनियम बने जिसमें विशेष परिस्थितियों की व्याख्या की गई।
POTA 2002
रासुका ,1980
टाडा 1985
वर्तमान में उपरोक्त सभी की जगह UAPA 2019  अधिनियम लाया गया है।
 निवारक नजरबन्दी
निवारक नजरबन्दी से तात्पर्य बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के नजरबन्दी से है। यह अपराधी को दण्डित करने से नहीं बल्कि अपराध करने से रोकने की प्रक्रिया है। जब राज्य को यह अनुमान हो कि किसी व्यक्ति से जो अपराध करने वाला है, राज्य की सुरक्षा को खतरा हो या खतरे की धमकी मिल रही हो तो राज्य सीमित अवधि के लिए बिना जांच किये बंदी बना सकता है। हालांकि किसी व्यक्ति को 3 महीने से अधिक इस कानून के तहत बन्दी नहीं रख सकते, जब तक कि परामर्श दात्री समिति, जिसमें एक व्यक्ति उच्च न्यायालय का जज हो, की अनुमति प्राप्त न हो चुकी हो। 1. राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम दिसम्बर 1980 को सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश लागू किया जो बाद में कानून बन गया। इसका उदेश्य साम्प्रदायिक व जातीय दंगों व देश की सरक्षा के लिए खतरनाक गतिविधियों के लिए उत्तरदायी व्यक्तियों को निरूद्ध करना हैं। राष्ट्रीय सरक्षा कानुन निवारक निरोध कानून की व्यवस्था ही है। जन 1984 को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून दूसरा संशोधन अध्यादेश जारी किया गया। इसके आधार पर इसमें कुछ परिवर्तन करते हुए इसे और कठोर बना दिया गया है। पहला यह संशोधन किया गया कि किसी व्यक्ति की नजरबन्दी के आदेश की अवधि खत्म होने, आदेश रदद हो जाने अथवा वापिस ले लिये जाने के बाद नया आदेश जारी करके उसे नजरबन्द किया जा सकेगा। दूसरा प्रावधान यह किया गया नजरबन्दी के हर कारण पर अदालतों को अलग अलग विचार करके फैसला करना होगा । आर्थिक क्षेत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून की श्रेणी का एक कानून "विदेशी मुद्रा संरक्षण व तस्करी निरोधक अधिनियम-1974 से लागू है।
गैर कानूनी गतिविधियां निवारण अध्यादेश - पोटा कानून को समाप्त करने के बावजूद राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद से निपटने के लिए कठोर कानून की  आवश्यकता अनुभव करते हुए सितम्बर 2004 में गैरकानूनी गतिविधियां निरोधक अध्यादेश जारी किया गया। इसमें पोटा के कई प्रावधानों को सम्मिलित किया गया है।
निवारक निरोध अधिनियम का औचित्य अधिनियम को कटु आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। इन्हें अलोकतांत्रिक प्रतिक्रियावादी संविधान की महान असफलता व निरंकुशता का प्रतीक माना गया। इनके दुरुपयोग की संभावना सदैव बनी रही है। फिर भी निवारक निरोध अधिनियम की आलोचनाओं के बावजूद इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान परिस्थितियों में जब देश आतंकवाद, अलगाववाद की मार झेल रहा है ऐसे समय में इस तरह के कानून आवश्यक व उपयोगी भी हैं। 


3.शोषण के विरुद्ध अधिकार -

अनुच्छेद 23 व 24  संविधान के अनुच्छेद 23 व 24 के द्वारा सभी नागरिकों को शोषण के विरुद्ध अधिकार प्रदान कर शोषण की सभी स्थितियां समाप्त करने का प्रयास किया गया है।

(i)मानव के क्रय विक्रय व बेगार पर रोक (अनुच्छेद 23) -

 इस अनुच्छेद द्वारा बेगार तथा इसी प्रकार का जबरदस्ती करवाये हुए श्रम का निषेध किया गया है। हमारे देश में सदियों से किसी न किसी रूप में दासता की प्रथा विद्यमान थी जिसमें खेतीहर श्रमिकों बन्धुआ मजदूरों, स्त्रियों व बच्चों से बेगार करवाकर उनका शोषण किया जाता था। संविधान में मानवीय शोषण के इन सभी रूपों को कानून के अनुसार दण्डनीय घोषित किया गया है। फिर भी राज्य हित में सरकार द्वारा व्यक्ति को अनिवार्य श्रम की योजना लागू का जा सकती है लेकिन ऐसा करते समय नागरिकों के बीच धर्म, मूलवंश, जाति,वर्ण या सामाजिक स्तर के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।

बाल श्रम निषेध अनुच्छेद 24 

इसके अनुसार 14 वर्ष से कम आयु वाले बच्चों को कारखानों, खानों अथवा
जोखिम वाले काम पर नियुक्त नहीं किया जा सकता। 

4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28) 


भारत एक बहुधार्मिक देश है। हमारे देश में सभी धर्मो के लोग रहते हैं। संविधान के अनुच्छेद 25-28 में प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार प्रदान किया गया है। 

(i) अन्तःकरण की स्वतन्त्रता (अनुच्छेद 25)

इस अनुच्छेद के अनुसार.अंतःकरण की स्वतन्त्रता तथा कोई भा धर्म अंगीकार करने, उसका अनुसरण व प्रचार करने का अधिकार प्राप्त है। धार्मिक संस्थाओं में बिना किसी भेद के प्रवेश व पूजा अर्चना का अधिकार

(ii) धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतन्त्रता (अनुच्छेद 26)

इस अनुच्छेद में प्रत्येक धर्म के अनुयायियों
को निम्न अधिकार प्रदान किये गये हैं(अ) धार्मिक और धर्मार्थ प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की सीपना व पोषण। (ब) धर्म विषयक कार्यों का प्रबन्ध करना। (स) चल अचल सम्पति के अर्जन व स्वामित्व का अधिकार (द) उस सम्पति का विधि के अनुसार संचालन करने का अधिकार।  (iii)राजकीय संस्थाओं में धार्मिक शिक्षण पर रोक (अनुच्छेद 28) – इस अनुच्छेद के अनुसार राज्य की निधि से किसी भी शिक्षण संस्था में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं की जावेगी। इसके साथ ही राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या आर्थिक सहायता प्राप्त शिक्षण संस्था में किसी व्यक्ति को धर्म विशेष की शिक्षा लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकेगा। 

5. सांस्कृतिक व शिक्षा सम्बन्धी अधिकार (अनुच्छेद 29 व 30) 

(i) अल्पसंख्यक वर्गों के हितों की सुरक्षा (अनुच्छेद 29) -

इस अनुच्छेद के अनुसार देश के सभी नागरिकों को संस्कति व शिक्षा सम्बन्धी स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया है। नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को अपनी भाषा, लिपि व संस्कृति को सुरक्षित रखने का पूरा अधिकार है। इस तरह राज्य द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए जाति, वर्ग के आधार पर कोई विभेद नहीं किया जायेगा।

(ii)अल्पसंख्यक वर्ग को शिक्षा संस्थाओं की स्थापना व संचालन का अधिकार (अनुच्छेद 30)-

 इस अनुच्छद के अनुसार अल्पसंख्यक वर्ग को अपनी इच्छानुसार शिक्षण सस्थान की स्थापना व उनके संचालन सम्बन्धी आधकार प्राप्त है। राज्य द्वारा वित्तीय सहायता प्रदान करते समय किसी भी ऐसी संस्था के साथ धर्म, जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा।


6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32) 

मूल अधिकार प्रदान किये गये हैं किन्तु यदि इनकी उचित क्रियान्वति की व्यवस्था न की जाए तो इनका कोई अर्थ नहीं रहेगा। संविधान निर्माताओं ने इसी तथ्य को मध्यनजर रखते, हुए संवैधानिक उपचारों का अधिकार दिया है। इसका अभिप्राय यह है कि नागरिक अधिकारों को लागू कराने के लिए न्यायपालिका की शरण ले सकता है।
डॉ. अम्बेडकर ने तो अनुच्छेद 32 का महत्त्व स्पष्ट करते हुए कहा था कि यदि मुझसे कोई यह पूछे कि संविधान का वह कौनसा अनुच्छेद है जिसके बिना संविधान शून्य प्रायः हो। जायेगा तो मैं इस अनुच्छेद को छोड़कर किसी और अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं कर सकता। यह तो संविधान की हदय व आत्मा है। सर्वोच्च व उच्च न्यायालय द्वारा मूल अधिकारों की रक्षा के लिए निम्न पांच प्रकार के लेख जारी किये जा सकते हैं।

1 बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख  -

 यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है जो यह समझता है कि उसे अवैध रूप से बन्दी बनाया गया है। इसके द्वारा न्यायालय सम्बन्धित अधिकारी को यह आदेश देते है कि बन्दी बनाये गये व्यक्ति को निश्चित समय व निश्चित स्थान पर निश्चित प्रयोजन के लिए उपस्थित करे जिससे न्यायालय यह जान सके कि उसे वैध रूप से बन्दी बनाया गया है या अवैध । अगर बन्दी बनाने का कारण अवैध होता है तो न्यायालय तत्काल इसे मुक्त करने की आज्ञा देता है। 

2. परमादेश 

इस आदेश द्वारा न्यायालय उस पदाधिकारी को अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए आदेश जारी कर सकता है जो पदाधिकारी अपने कर्तव्य का समुचित पालन नहीं कर रहे हैं। 

3. प्रतिषेध लेख

यह आलेख सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालयों को जारी करते हुए निर्देश दिया जाता है कि इस मामले में कार्यवाही नहीं करें क्योंकि यह उनके क्षेत्राधिकार से बाहर है। 

4. उत्प्रेषण लेख - 

इस आज्ञा पत्र का उपयोग किसी भी विवाद को निम्न न्यायालय से उच्च न्यायालय में भेजने के लिए जारी किया जाता है। जिससे कि वह अपने शक्ति से अधिक अधिकारों का प्रयोग न करे और न्याय के प्राकृतिक सिद्वान्त की पालना की जा सके। 

5. अधिकार पृच्छा

जब कोई व्यक्ति गैर कानूनी तौर पर किसी सरकारी या अर्द्व सरकारी या निर्वाचित पद को संभालने का प्रयास करे तो उसे ऐसा आदेश जारी किया जा सकता है कि वह किस आधार पर  इस पद पर कार्य कर रहा है? जब तक वह संतोषजनक उत्तर नहीं देता तब तक वह कार्य नहीं कर सकता। , न्यायालय उस पद को रिक्त घोषित कर सकता है।

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