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Thursday, February 13, 2020

ज्वालामुखी

Volcanos
ज्वालामुखी



•ज्वालामुखी Volcanos

ज्वालामुखी भूमध्य के उस छिद्र  का नाम है जिसका संबंध पृथ्वी के आन्तारिक भाग से होता है । अन्तभूगर्भिक क्रियाओं में ज्वालामुखी का फूटना एक महत्वपूर्ण क्रिया है  ज्वालामुखी क्रिया को प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है | जवालामुखी के छिद्र का सबध आन्तरिक भाग से है । इस भाग में गर्म लावा,राख, गर्म गैसें आदि उपस्थित है, जो कभी कभी अन्दर अधिक दबाव के कारण ज्वालामुखी के रूप में पिघला हुआ पदार्थ निकलने लगता है इस क्रिया को ज्वालामुखी उदगार कहते है | ज्वालामुखी उद्गार कभी कभी शान्त रूप में या जोरदार विस्फोट के साथ होता है । ज्वालामुखी विस्फोट के स्थान पर धरातल की ठोस चलने टूट-टूट कर हवा में अधिक ऊँचाई तक फिक जाती हैं, विस्फोट के समय जल वाष्प के रूप में गीला पदार्थ अनेक गैसों के गुबार के रूप में निकलता है । और वह क्षेत्र जहां ज्वालामुखी फूटते है वहाँ वायुमंडल राख, धुआँ तथा गैसों से भर जाता है |
ज्वालामुखी क्रिया का संबध पृथ्वी की ऊपरी तह के नीचे की तह मेन्टल मे होने वाले परिवर्तनों से है | ज्वालामुखी का अर्थ होता है जिस छिद्र से आग की ज्वाला निकलती है ज्वालामुखी उद्गार के समय जो पदार्थ बाहर निकलता है वह प्राय : अधिक ताप के कारण लाल अंगारे जैसा दिखाई देता है । दूर से ये आग की लपट की तरह दिखाई पड़ता है जैसा कि ज्ञात है जैसे -जैसे हम पृथ्वी की सतह से नीचे की ओर जाते है तो तापक्रम में वृद्धि होने लगती है। प्रति 32 मीटर की गहराई पर 1 डि से. ताप बढ़ जाता है इससे यह अंदाज लगाया जा सकता है कि पृथ्वी की सतह के नीचे बहुत अधिक तापमान होगा जिससे चट्टाने तरल अवस्था में बदल जाती है भूपटल समान रूप से दृढ़ नहीं है कुछ भाग कमजोर होते है | अधिक दबाव एवं भूहलचलों  के कारण भूपटल के नीचे के पदार्थ इधर उधर हट जाते है और इनके टूटने से वहाँ का दबाव कम हो जाता है | पृथ्वी की भीतरी चट्टानें पिघलकर कमजोर स्थानों अथवा दरारों द्वारा लावा बाहर निकलने की कोशिश करता है | लावा के निकलने से ज्वालामुखी का निर्माण होता है । प्लेट विवर्तनीक तथा महाद्वीपीय विस्थापन के अध्ययन से यह पता चला है कि पृथ्वी की पर्पटी के कुछ भाग कमजोर हो जाते है और वहाँ दरारों से अत्यधिक गर्म एवं तरल लावा ज्वालामुखी के रूप में फूट पड़ता है । संसार में ज्वालामुखियों के वितरण से भी यह ज्ञात होता है कि आज भी ज्वालामुखी विस्फोट कुछ निश्चित क्षेत्रों में ही होते है । ज्वालामुखी व ज्वालामुखी क्रिया से निर्मित स्थलाकृतियों का अध्ययन करने से पहले दोनों में क्या अंतर है जानना जरूरी है । ज्वालामुखी क्रिया के अंतर्गत बहुत सी चीजें शामिल है । वासेस्टर महोदय के अनुसार “ज्वालामुखी वह क्रिया है जिससे गर्म पदार्थ की धरातल की तरफ या धरातल पर आने की सभी क्रियाओं को सम्मलित किया जाता है। ” ज्वालामुखी क्रिया के मुख्य रूप से दो प्रकार होते है आंतरिक ज्वालामुखी क्रिया एवं धरातल के ऊपर ज्वालामुखी क्रिया, आंतरिक क्रिया में लावा धरातल के नीचे ठंडा हो जाता है, उससे धरातल के नीचे लावा ठंडा होकर ठोस रूप धारण कर लेता है जिससे अनेक प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है जैसे लेकोलिथ, सिल, डाइक चैथोलिथ आदि । बाह्य क्रिया मे गर्म लावा धरातल पर प्रगट होने की क्रियायें शामिल है । ज्वालामुखी से तात्पर्य उस छिद्र या दरार से होता है जिससे पृथ्वी के आंतरिक भाग से गर्म लावा, वाष्प एवं गैसें आदि निकलती है । अत :हम कह सकते है । ज्वालामुखी वह छिद्र या दरार है जिससे लावा निकलता है।

ज्वालामुखी उद्गार से निकले पदार्थ

ज्वालामुखी क्रिया से कई प्रकार के पदार्थ बाहर निकलते है जिनम, लावा, गैस, उल वाथ्य और राख आदि होते है । जब उद्गार के रूप में द्रव के रूप में पिघला हुआ पदार्य आता है उस बादा या मैग्मा कहते है । सिलिका की मात्रा के आधार पर लावा दो प्रकार का होता है। 1. अम्लीय लावा या एसिड लावा इसका रंग पीला तथा भार में हल्का हाता हैतथा यह ऊँचे ताप पर पिघलता है इसमें 65% से 70% सिलिका की मात्रा होती है। 2 पैठिक लावा या बेसिक लावा ( इसका रंग गहरा काला होता है इसका भार अधिक होता है तथा कम ताप पर पिघल जाता है इसमें सिलिका की मात्रा 40% से 50% के बीच होती है। लावा जब ज्वालामुखी छिद्र के चारों तरफ जमा हो जाता है उसके परिणाम स्वरूप कई स्थलाकृतियाँ बन जाती हैं । लावा के जमने से ज्वालामुखी शंकु का निर्माण होता है । उद जमाव बहुत अधिक हो जाता है तो शंकु पर्वत का रूप धारण कर लेता है । इस तरह से बने शंकु को ज्वालामुखी पर्वत कहते है | जब ज्वालामुखी का छिद्र बड़ा हो जाता है तो उसे ज्वालामुखी का मुख  कहते है । जब धंसाव या अन्य कारणों से बड़े मुख को कल्डेरा कहते हैं।

ज्वालामुखियों का वर्गीकरण

ज्वालामुखी के उद्गार या उद्भेदन की प्रक्रिया तथा उद्गार के समय में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है ऐसा देखा गया है कि कुछ ज्वालामखी में उद्गार अत्याधिक विस्फोट के साथ लगातार होता रहता है । अधिकाश ज्वालामुखी में उदगार रूक-रुक कर होता है । कुछ ज्वालामुखी में उद्गार शान्त रूप में होता है । तथा कई ज्वालामुखी कुछ समय तक शान्त रहकर फिर सक्रिय हो जाते है तथा कुछ हमेशा के लिये शांत हो जाते है । इस प्रकार हम यह कह सकते है ज्वालामुखी की उदगार की प्रक्रिया व अवधि में काफी अन्तर पाया जाता है इसलिये ज्वाला मुखियों का वर्गीकरण करते समय उद्गार की प्रक्रिया और उद्गार की क्रियाशीलता को आधार मानकर वर्गीकरण करना चाहिये। इस तरह हम ज्वालामुखी में तीन भेदकर सकते है ।

क्रियाशील ज्वालामुखी

जिस ज्वालामुखी से समय समय पर उदार हो जाया करता है उसे सक्रिय ज्वालामुखी कहते है। हवाई द्वीप का मोना लोआ, सिसली का एटना तथा इटली का विसुवियस सक्रिय ज्वालामुखी है । संसार में करीब 450 से ज्यादा ज्वालामुखी सक्रिय अवस्था में पाये जाते है । इटली का विसुवियस ज्वालामुखी सर 1979 में जाग्रत हुआ इसके पहले यह लम्बे समय तक सुसुप्त रहा था। इक्कडोर स्थित कोटो पैक्सी  ज्वालामुखी संसार का सबसे ऊँचा सक्रिय ज्वालामुखी है ।

सुषुप्त ज्वालामुखी

कुछ ज्वालामुखी उद्गार के बाद लम्बे समय तक शान्त हो जाते है और जिनके जागत होने के लक्षण प्रकट होते हैं उसे निद्रित अथवा सुषप्त ज्वालामखी कहते हैं इस तरह के ज्वालामुखी का उदाहरण जापान का फ़्यूजीयामा और इंडोनेशिया का काकातोआ  । इस प्रकार के ज्वालामुखियों के उदार के समय तथा स्वभाव के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं होती है इसलिये इनके स्वभाव के संबंध में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है । काकातोआ, जावा और सुमात्रा के बीच स्थित एक दवीप है । लगभग 200 वर्षों तक शांत रहने के बाद 1883 ई. में अचानक विस्फोट हुआ जो लम्बे समय तक चलता रहा । काकातोआ द्वीप का लगभग दो तिहाई भाग खत्म हो गया ।

मृत ज्वालामुखी

जिस ज्वालामुखी में उद्रार पूर्ण रूप से बंद हो जाता है उसे मृत ज्वालामुखी कहते है । इस प्रकार के ज्वालामुखी का रूप अपरदन के द्वारा परिवर्तित हो जाता है । इस प्रकार के ज्वालामुखी के मुख पर झील का निर्माण हो जाता है, इसके उदाहरण अफ्रीका में किलिमंजारो ज्वालामुखी हैं । हिन्द महासागर के मोरिसस तथा अन्य कई द्वीपों में मृत ज्वालामुखी के उदाहरण हैं ।

ज्वालामुखियों का वर्गीकरण उनके उदार के स्वरूप के आधार पर

ज्वालामुखी का उद्रार मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है। 
1. एक छिद्र तथा नली या द्रोणी के सहारे होने वाला उदार जिसे केन्द्रीय उदार  कहते है । 2 जब लावा का उद्रार एक लम्बी दरार के सहारे तरल लावा शान्त रूप में निकलकर विस्तृत क्षेत्र में परत के रूप में धरातल पर जमा हो जाता है उसे दरारी उद्रार कहा जाता है ।
केन्द्रीय उदार वाले ज्वालामुखी : केन्द्रीय उद्रार प्राय : एक सकरी नली या दोणी के सहारे एक छिद्र से होता है । केन्द्रीय उद्रार के अन्तर्गत चार प्रकार के ज्वालामुखी सम्मिलित किये जाते है ।
हवाई प्रकार के ज्वालामुखी
इस प्रकार के ज्वालामुखी में उदार शांत ढंग से होता है । हवाई दवीप पर इस प्रकार के ज्वालामुखी पाये जाते है इसलिये इनको इसी नाम से जाना जाता है । इस प्रकार के ज्वालामुखी में तरल लावा का उद्रार होता है और लावा दूर तक फैल जाता है ।

स्ट्रेम्बोलियन प्रकार के ज्वालामुखी

इस प्रकार के ज्वालामुखी का नामकरण स्टेम्बोली ज्वालामुखी के नाम पर किया गया है ।इस प्रकार के ज्वालामुखी में लावा पतला होता है | क्रेटर से लावा के साथ गैसें विस्फोट करती हुई निकलती हैं । लावा पदार्थ अत्यधिक ऊँचाई तक आकाश में चला जाता है ज्वालामुखी धूल तथा विखण्डित पदार्थ थोड़ी देर में नीचे गिरते है और लगता है कि जैसे चट्टानी टुकडों की वर्षा हो रही है ।
वलकेनियन प्रकार के ज्वाला मुखी  इस प्रकार के ज्वालामुखी का नामकरण भी सिसिल द्वीप में स्थित स्ट्राम्बोली ज्वालामुखी के पास पाये जाने वाले ज्वालामुखी के नाम पर किया गया है । इस प्रकार का ज्वाला मुखी प्राय : विस्फोटक एवं भयंकर उदार के साथ निकलता है । इससे निकला लावा गाढ़ा और चिपचिपा  होता है और दो उदारों के बीच यह क्रेटर मे जमकर क्रेटर के मुंह को बंद कर देता है । इससे उदार से निकलने वाली गैसों का मार्ग बंद हो जाता है और धीरे - धीरे जब गैसें अधिक मात्रा में जमा हो जाती है तो तीव्रता से लावा के अवरोध को तोड़कर विस्फोट के साथ निकलती है । राख और धूल से भरे गैस विशाल काले बादलों के रूप में आकाश में छा जाते हैं, जो देखने में फूल गोभी के समान दिखते है ।

वेसुवियन प्रकार के ज्वालामुखी

  इस प्रकार के ज्वालामुखी में गैसों की तीव्रता के कारण लावा भयानक विस्फोटके साथ धरातल पर प्रगट होते है। इससे निकले पदार्थ अधिक ऊँचाई तक आकाश में जाते है थोड़ा लावा निकल जाने के कारण ऊपर का दबाव कम हो जाता है आकाश में ज्वाला मुखी लावा विस्फोट के साथ
फूल गोभी नुमा बादल बनाते हुए निकलता है। इस प्रकार का उद्भेदन सन 1979 ई में विसुवियस मजा था जिसका सवयम अध्ययन प्लीनी महोदय ने किया था इसलिये इसे प्लिनियन प्रकार का ज्वालामुखी भी कहा जाता है।

पोलियन प्रकार के ज्वालामुखी

इस प्रकार के ज्वालानुखो भयकर विस्फोटक के साथ उद्भोदित होते है और ये सबसे अधिक उरकरी होते है। इनसे निकला लावा सबसे अधिक चिपचिपा और लसदार होता है इनमें लादा और देखाडेत पदार्थ को मात्रा सबसे अधिक होती है। अत: जब इस प्रकार के ज्वालामुखी का डर होता है तो पूर्व निर्नित ज्वालानुखी शंकु नष्ट हो जाती है। दरार उद्गा वाले ज्वालानुडी
  जब लावा के साथ गैस की मात्रा अधिक नहीं होती है तो धरातल में दरार पड़ जाती है और लावा शांत रूप से प्रवाहित होता है और धरातल के ऊपर फैल जाता है। कभी कभी लावा की मात्रा इतनी अधिक होती है कि धरातल के उन न्श को मोटो परत जमा हो जाती है जो ठोस होकर लावा मैदान अथवा लावा पठार निर्मित हो जाते है । भारत के पश्चिमी भाग में दुसरी उद्रार दवारा विस्तृत लावा पठार का निर्माण हुआ है। केन्द्रीय उद्धार वाले ज्वालामुखी तथा दरार उदार वाले ज्वालामुखी में सबसे बड़ा अंतर यह होता है के दरारी उद्गार में लावा छिद्र से  निकलकर दरार से निकलता है। सन् 1733 ने अइसलैंड में एक 25 के.मी. लम्बी दरार से होकर लावा का उद्रार हुआ था जिससे करीब 330 मी लम्बाई का क्षेत्र प्रभावित हुआ इससे अाइसलैंड की 20% जनसंख्या नष्ट हो गई संयुक्त  राज अमेरिका का कोलम्बिया का पठार भी इसी प्रकार के उद्रार का उदाहरण है।

ज्वालामुखी के उद्गार के कारण

ज्वालामुखी के उद्रार का सीधा सबध पृथ्वी की आन्तरिक रचना से है । अगर हम ज्वालामुखिया के वितरण का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट होता है कि ज्वालामुखी उन भागों में केन्द्रित है जो भूगर्भिक इतिहास भूगर्भिक हलचलों से अधिक प्रभावित होते रहे हैं । पृथ्वी का आन्तरिक भाग अभी भी पूर्ण रूप से ठंडा नहीं हुआ है । पृथ्वी की सतह के नीचे अधिक ताप पाया जाता है । पृथ्वी की सतह के नीचे रेडियोधर्मी पदार्थ विघटन द्वारा ताप की मात्रा बढ़ाते हैं | सतह पर दरार पड़ने से मैग्मा का भार कम हो जाता है और वह ऊपर की ओर आने लगता है |
ज्वालामुखी का विश्व वितरण
Volcanos in world
Volcanos




  संसार में सक्रिय ज्वालामुखियों की संख्या 500 के लगभग है । विश्व मानचित्र में (चित्र - 6.6) यदि ज्वालामुखी के वितरण को देखे तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्वालामुखी ज्यादातर उन क्षेत्रों में पाये जाते है जो भूगर्भिक दृष्टि से अस्थिर रहे हैं । सक्रिय ज्वालामुखी एक सुनिश्चित पट्टी में पाये जाते है । ये पट्टियाँ मुख्य भूसंचालन के क्षेत्रों में हैं जहां संसार का नवीन मोड़दार पर्वत मालायें मिलती हैं, जो महाद्वीपों के मध्य में पूर्व से पश्चिम की ओर फैले है या महाद्वीपों के पश्चिमी तट पर उत्तर से दक्षिण की ओर फैले हैं। कुछ ऐसी भी नवोन पर्वत मालायें है जहाँ ज्वालामुखी नही हैं जैसे हिमालय या इसके विपरीत कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ ज्वालामुखी मिलते हैं परन्तु नवीन मोड़दार पर्वत नहीं पाये जाते है जैसे आइसलैंड ।
 

ज्वालामुखियों की सबसे महत्वपूर्ण पेटी

प्रशान्त  महासागरीय पेटी कहा जाता है । इस पेटी में तीनों प्रकार के ज्वालामुखी पाये जाते है । इस पेटी का विस्तार दक्षिण अमेरिका के एन्डीज पर्वत से शुरू होकर उत्तरी अमेरिका के राकीज पर्वत श्रृंखला के साथ होकर अलास्का तक फैली है । एक पेटी जापान, फिलीपीन्स, न्यूगिनी से होती हुई न्यूजीलैंड तक फैली है ।
मध्य महाद्वीपीय पेटी
  इस श्रृंखाला का प्रारंभ महाद्वीपीय भाग से न होकर सागरीय भाग से माना जाता है । यह श्रृंखाला आइसलैंड से प्रारंभ होती है । यहाँ दरारी उदार वाले अनेक ज्वालामुखी पाये जाते हैं । मध्य महाद्वीपीय ज्वालामुखियों का वितरण समान नही है ।


अन्ध महासागरीय पेटी
  यहाँ पर ज्वालामुखियों का वितरण किसी निश्चित क्रम में नहीं पाया जाता है । उत्तरी आन्ध्र महासागर में मध्य रिज के सहारे ज्वालामुखी पाये जाते हैं ।
अन्य ज्वालामुखी क्षेत्र
कुछ ज्वालामुखी क्षेत्र हिन्द महासागर तथा अन्टार्कटिका महाद्वीप के चारों तरफ स्थित द्वीपों पर पाये जाते है।

ज्वालामुखी क्रिया द्वारा निर्मित स्थलाकृतियाँ


ज्वालामुखी क्रिया के द्वारा पृथ्वी की सतह पर विशिष्ठ भूआकृतियाँ निर्मित होती हैं, ज्वालामुखी क्रिया द्वारा निर्मित स्थलाकृतियाँ लावा तथा विखंडित पदार्थ के अनुपात पर आधारित होती हैं ।
ज्वालामुखी के उद्गार के साथ लावा चट्टान चूर्ण, गैसें और राख आदि निकलती हैं । जिनसे बाहरी भाग में विभिन स्थलाकृतियों का निर्माण होता है, इसके अतिरिक्त जब मैग्मा ज्वालामुखी के रूप में बाहर नहीं निकल पाता है तो उससे आतरिक भाग में ही स्थलाकृतियाँ विकसित हो जाती है और वे केवल ऊपरी सतह के अपरदन के बाद धरातल पर दिखाई देती है ।
ज्वालामुखियों से निर्मित स्थलाकृतियों को निम्न भागों में बाटा जा सकता है ।
बाल स्थलाकृतियाँ
(अ) ऊँचे उठे भाग
  (ब) नीचे धसे भाग
  (अ) ऊँचे उठे स्थल भाग
(i) सिन्डर शंकु  (ii) मिश्रित शंकु  (iii) परिपोशित शंकु (iv) स्पेटर शंकु  (v) बेशिक लावा शंकु (vi)अम्लीय लावा शंकु(vii) गुम्बद तथा टीले  (viii) लावा सिन्डर और राख मैदान (ix) पंक वाह
(ब) नीचे धंसे स्थल भाग
(i) क्रेटर  (ii) कालडेरा (iii) ज्वालामुखी वेन्टस
(स) दरार उदार द्वारा निर्मित स्थलाकृतियाँ
(i) लावा पठार  (ii) लावा मैदान
(iii) मेसा ओर ब्यूटे
(द) आन्तरिक स्थलाकृतियाँ
(i) बेथोलिथ  (ii) लेकोलिथ  (iii) फकोलिथ  (iv) सल (v) डाइक
ज्वालामुखी पठार
पृथ्वी के कई भागों के बहुत बड़े हिस्से में ज्वालामुखी लावा बहुत मोटी तहों में जमा हो जाता है जिससे पठारों और मैदानों का निर्माण होता है । मध्य फ्रांस, न्यूजीलैंड, पश्चिम भारत का दक्षिण का पठार, ब्राजील तथा साइबेरिया में इस तरह के पठार पाये जाते है ऐसे पठारों का निर्माण दरारों से निकले लावा के जमा होकर ठंडे होने से होता है |
 कोलम्बिया का पठार :
यह लावा द्वारा निर्मित विस्तृत प्रदेश है इसका क्षेत्रफल लगभग 100,000 वर्ग मील है तथा लावा की मुटाई 2000 - 5000 फीट तक पाई जाती है ऐसा अनुमान है कि इस पठार का लगभग 1000 फीट अपरदन हो गया है ।परिचम दक्कन का पठार :
क्रिटेशस काल के अन्त में या टरसरी युग के प्रारंभ में दक्कन के पठार के पश्चिमी भाग में बहुत बड़े पैमाने पर दरारों से लावा का उद्रार की क्रिया हुई और पश्चिमी तथा दक्षिणी भाग में बेसाल्ट की मोटी परत जमा हो गई ऐसा विश्वास किया जाता है कि लावा का उदार लम्बे समय के अन्तराल से हुआ है और इस क्षेत्र में करीब 20 तहें लावा की पाई जाती है ऐसा समझा जाता है कि इस पठार का विस्तार प्रारंभ में करीब 20 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में था जो अब अपरदित होकर अब दो लाख वर्ग कि.मी. में रह गया है इसका विस्तार पश्चिमी मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र एवं आंध्रप्रदेश में मिलता है | पश्चिमी सह तट पर इसकी मोटाई 3000 मीटर तक मिलती है किन्तु पूर्व की ओर यह कम पाई जाती है | छोटा नागपुर के पठार में भी कुछ क्षेत्र में लावा की तहें पाई जाती है। ज्वालामुखी क्षेत्रों की अन्य स्थलाकृतियाँ ज्वालामुखी क्षेत्रों में जल के सम्मिश्रण से अनेक गौण आकृतियां मिलती है ।
 गर्म सोते  : गर्म जल के सोते ज्वालामुखी क्षेत्र की विशेषता नहीं है । ये उन सभी प्रदेशों में मिलते है जहां अतीत में अन्तरभौमिक क्रियाओं का प्रभाव रहा है। भूमिगत जल जब गर्म चट्टानों में प्रवेश कर गर्म होकर पुन : स्रोतों के रूप में फूटता है तब स्रोतों का जल बहुत गर्म होता है । इस जल में अनेक खनिज भी घुले रहते है उसमें सल्फर विशेष महत्व का है ।

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