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Saturday, February 8, 2020

प्लेट विवर्तनिकी और महाद्वीपीय विस्थापन

Plate Tectonics and Continental Displacement
Plate Tectonics and Continental Displacement


प्लेट विवर्तनिकी और महाद्वीपीय विस्थापन      
महासागरों की तली पर विस्तारण पुराचुम्बकत्व ज्वालामुखी व भूकम्प की क्रियाओं. आणविक स्रोतों आदि से सम्बन्धित नवीनतम जानकारियों ने महाद्वीपों व महासागरों की उत्पत्ति से सम्बन्धित एक नई संकल्पना को जन्म दिया, जो प्लेट विवर्तनिकी के नाम से विख्यात हुई। 
 अर स्थलमण्डल के दृढ़ व कठोर पिण्डों को प्लेट  कहा गया है । स्थलमण्डल के अन्तर्गत भूपर्पटी तथा उसके नीचे स्थित मैंटल का ऊपरी भाग सम्मिलित । यह स्थलमण्डल दृढ़ व कठोर प्लेटों का एक समुच्चय है जिसके नीचे दुर्बलतामण्डल  स्थित है । इन प्लेटों की मोटाई लगभग 100 किलोमीटर आंकी गई है । सभी भूगर्भिक गतिविधियाँ इन प्लेटों के पाश्वो  पर होती हैं । भूगर्भिक क्रियाओं को विवर्तनिकी कहा जाता है । अतः प्लेटों के उद्भव, प्रकृति व गतियों की सम्पूर्ण प्रक्रिया एवं उसके परिणाम प्लेट विवर्तनिकी कहलाते हैं । स्ट्रैलर ने भी इस विषय में लिखा है कि प्लेट विवर्तनिकी प्लेटों के धीरे-धीरे कमजोर दुर्बलतामण्डल  पर फिसलने की क्रिया है । प्लेट विवर्तनिकी के दो आधारभूत पहलू हैं - (1) महाद्वीपीय विस्थापन एवं (2) महासागरीय तली का विस्तारण | इन दोनों ही पहलुओं में क्षैतिज गति निहित है । वैगनर के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धान्त से केवल यही तथ्य प्लेट विवर्तनिकी में लिया गया है ।
   प्लेटों के प्रकार
    इस परिकल्पना में प्लेटों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है – (1) महाद्वीपीय प्लेटें  एवं (2) महासागरीय प्लेटें  | जिस प्लेट में सम्पूर्ण या अधिकांश भाग स्थली होता है, वह महाद्वीपीय प्लेट कहलाती है । जिस प्लेट में पूर्ण रूपेण अथवा अधिकांश भाग महासागरीय तली का सम्मिलित होता है, वह महासागरीय प्लेट कहलाती है। 

    प्रमुख प्लेटें 

    ग्लोबीय स्तर पर छ: बड़ी प्लेटें बताई गई हैं | कुछ भूगोलवेत्ताओं ने अमेरिकी प्लेट को दो भागों में बांटकर (उत्तरी अमेरिकी व दक्षिणी अमेरिकी) इनकी संख्या सात बताई है |इसी प्रकार इनके उपविभाजन के द्वारा उपप्लेटों की संख्या कुछ भूगर्भशास्त्रियों ने 14 व कुछ ने 20 बताई है | यहाँ 6 मुख्य प्लेटों का ही वर्णन दिया जा रहा है 

1अमेरिकन प्लेट  

इसके अन्तर्गत उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका का महाद्वीपीय पर्पटी एवं पूर्व की ओर मध्य अटलाण्टिक कटक तक फैली महासागरीय पर्पटी  सम्मिलित हैं । अमेरिकन प्लेट एक इकाई क रूप में पश्चिम की ओर गतिमान है इसके परिणामस्वरूप अमेरिकी महाद्वीपों के पूरा किनारों पर कोई विवर्तनिकी हलचलें नहीं होती । यह प्लेट अमेरिका महाद्वीपों के पाश्चमी तट तक विस्तृत है एवं प्रशान्त महासागरीय प्लेट से मिलती है । 

2. प्रशान्त प्लेट

पूर्वी प्रशान्त कटक  से पारचम की ओर सारे प्रशान्त महासागर पर फैली यह एक मात्र ऐसी प्लेट है जो पूणरूप स महासागरीय पर्पटी से निर्मित है । अमेरिकन प्लेट के साथ अभिसारी सीमान्त होने के कारण इस प्लेट को नीचे धंसने के लिये बाध्य होना पड़ता है | 

3. अफ्रीकी प्लेट - 

यह प्लेट पूर्व में भारतीय , दक्षिण में अण्टार्कटिका, पश्चिम में मध्य अटलाण्टिक कटक व उत्तर में यूरेशियन प्लेटों के मध्य स्थित एक मिश्रित (महाद्वीपीय व महासागरीय) प्लेट है।

 4. यूरेशियन प्लेट 

 यह एक मात्र ऐसी प्लेट है जो अधिकांशतःमहाद्वीपीय पर्पटी से निर्मित है । यह प्लेट पूर्व में द्वीपीय चापों , दक्षिण में आल्प्स -हिमालय पर्वतीय क्रम एवं पश्चिम में मध्य अटलाण्टिक कटक तक विस्तृत है ।

  5. भारतीय प्लेट  - 

इसके अन्तर्गत भारतीय उपमहाद्वीप व ऑस्ट्रेलिया की स्थलीय पर्पटी तथा हिन्दमहासागर एवं प्रशान्त महासगार की दक्षिणी - पश्चिमी
महासागरीय पर्पटी सम्मिलित की जाती है । 

6. अण्टार्कटिका प्लेट

इसका विस्तार अण्टार्कटिका महाद्वीप के चारों ओर मध्यमहासागरीय कटकों तक है । अण्टार्कटिका प्लेट का अधिकांश भाग हिमाच्छादित है।
भूपर्पटी की इन दृढ़ एवं कठोर प्लेटों का समुच्चय दुर्बलतामण्डल के अस्थिर एवं कमजोर क्षेत्र के ऊपर उठ कर दायें – बायें पार्यों की और प्रसारित होता रहता है जिसके प्रभाव से प्लेटों में हलचल होती रहती है । ये हलचलें प्लेटों के पार्श्व  पर होती हैं । अतः प्लेट विवर्तनिकी में प्लेटों के पार्श्व क्षेत्र अथवा सीमान्त ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं । इन पावों पर ही सभी विवर्तनिकी हलचलें जैसे - भूकम्प व ज्वालामुखी प्रक्रियाएं, पर्वतनिर्माण, वलन, भंशन आदि होती हैं । अतः प्लेट पार्यों या सीमान्तों की व्याख्या अलग से आवश्यक है ।

 प्लेट पार्श्व या सीमान्त 

1. अपसारी पार्श्व या सीमान्त  

ये वे पार्श्व हैं जहाँ से दो प्लेटें एक -दूसरे से विपरीत दिशा में गति करती हैं | अत: वे इस गति के द्वारा एक दूसरे से दूर हटती रहती हैं। इनके दूर हटते रहने से जो रिक्त स्थान बनाता है, उसमें मुग्धा बाहर निकलकर लावा के रूप में जमा होता रहता है । स्पष्ट हैं कि ऐसे सीमान्तों पर ज्वालामुखी क्रिया  अधिक होती है । यह भी स्पष्ट है कि दोनों प्लेटों के एक दूसरे से दूर हटने एवं उसके परिणामस्वरूप हुए रिक्त स्थानों पर लावा जमा होते रहने से वहाँ क्षेत्रीय विस्तार होता है इसलिये ऐसे पार्यों को रचनात्मक पार्श्व अथवा संवर्धनकारी पार्श्व भी कहते हैं | अटलाण्टिक कटक पर ऐसे ही पार्श्व मिलते हैं । वहाँ हो रहे क्षेत्रीय विस्तार को महासागर - तलीय विस्तारण कहते हैं | ऐसे क्षेत्रों में ज्वालामुखी क्रिया के कारण कई बार द्वीप बन जाते हैं | मध्य अटलाण्टिक कटक में सर्टसे द्वीप इसी प्रकार 14 नवम्बर 1963 को बना था ।

2 अभिसारी पावं या सीमान्त

ये वे पार्श्व हैं जिनमें दो प्लेटें एक दसरे की ओर गति करती हैं । एक - दूसरे की और गति करने के कारण उनका अभिसरण  होता है । अभिसरण के कारण एक प्लेट दूसरी के ऊपर चढ़ जाती है तथा दूसरी प्लेट का नीचे की ओर धंसान या अवतलन होता है, अत: इस पेटी को अवतलन मेखला  कहा जाता है  | अवतलित प्लेट का अग्रभाग मैंटल में प्रवेश करने पर वहाँ की ऊष्मा के कारण  द्वीपीय चाय पिघल जाते हैं, अत: इसे भंजक  या क्षीणकारी पार्श्व भी कहते हैं । अभिसारी पार्श्व पार खाइयाँ  होती हैं जिनसे होकर अवतलित प्लेट का पिघला हुआ पादर्थ पुनः बाहर निकालकर ज्वालामुखियों ज्वालामुखी
श्रृंखलाओं तथा द्वीपीय चापों का रूप धारण कर लेता है । प्रशान्त महासागरीय प्लेट के पश्चिमी पार्श्व पर अल्यूशियन, क्यूराइल, जापान, मिणडानाओ, मैरियाना आदि खाइयाँ हैं, जिनके समीप कई दवीपीय चाप हैं
3. पारवर्ती पार्श्व - जब किसी भंश के सहारे दो प्लेटें भिन्न दिशाओं में सरकती (Slide) हैं तो उसे परवर्ती पार्श्व कहते हैं। प्लेटों की इसी गति से न तो क्षेत्रीय संवर्धन और न ही भंजन  होता है। इसे अपरूण सीमान्त भी कहते हैं। परवर्ती पार्श्व उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी भाग में सैन एण्ड्रियास  भंश के सहारे दो उप - प्लेटों का परवर्ती सीमान्त ही है । जनवरी 2001 में गुजरात में आये भूकम्प के अध्ययन से कुछ भूगर्भशास्त्रियों ने निष्कर्ष निकाला है कि उस क्षेत्र में भारतीय प्लेट की दो उप - प्लेटों के मध्य ऐसा ही सीमान्त है 
पाश्वों पर हलचलों के कारण
 प्लेट विवर्तनिकी के लिये किसी चालक बल अथवा यान्त्रिकी की आवश्यकता होती है । में सम्पूर्ण मैंटल को घेरे हुए संवाहन क्रिया का एक प्रतिमान दर्शाया गया है । मध्य महासागरीय कटकों के क्षेत्र में भीतर से मैग्मा का ऊपर आना एवं अभिसारी पार्श्व पर एक प्लेट का नीचे धंसकर मैंटल में पहुँचना इस संवहन तंत्र की मुख्य गतिविधियाँ हैं । प्लेटों के एकदम नीचे संवहन तरंगों का प्रवाह उन्हें क्षितिजीय गति देता है । कुछ भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार यह संवाहन क्रिया केवल दुर्बलतामण्डल तक ही सीमित है। कुछ अन्य भूगर्भशास्त्रियों ने एक भिन्न प्रतिमान  देते हुए बताया है कि दुर्बलतामण्डल में गति प्लेटों में गति के बिल्कुल विपरीत होती है । इस पहलू पर उनका कहना है कि नीचे धंसते हुए सीमान्त अपने गुरुत्वाकर्षण बल के द्वारा स्वयं गतिमान होंगे ।
संवाहनिक धाराओं की उत्पत्ति के लिये आवश्यक ऊर्जा स्रोत के विषय में भी मत भिन्न अडियो सक्रिय पदार्थ जनित ऊर्जा के विषय में अधिकांश भूगर्भशास्त्री सहमत है ।

 प्लेट विवर्तनिकी के प्रभाव

1. महासागर तलीय विस्तारण   

इस संकल्पना का प्रस्तुतीकरण सर्वप्रथम हैरी हैस  ने सन् 1960 में किया | मध्य महासागरीय कटक शैलों में पुराचुम्बकत्व  के शोध ने उनकी इस संकल्पना को जन्म दिया । अपसारी पार्श्व पर प्लेटें एक दूसरे से विपरीत दिशा में गति करती है | इस कारण मध्य महासागरीय कटक में हुए रिक्त स्थान में नीचे से संवाहन क्रिया द्वारा लावा ऊपर आकर जमा हो जाने से नई शैलों की उत्पत्ति होती है । यह प्रक्रिया निरन्तर चलते रहने से नई शैल पर्पटी बनती रहती है । परिणामस्वरूप महासागरीय तली का विस्तारण होता रहता है । वास्तव में मध्य महासागरीय कटकों से महासागरीय तली का विस्तारण होता है, इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिये पुराचुम्बकीय अध्ययन किये गये । चुम्बकीय धाराएं निरन्तर प्रवाहित होती रहती हैं, किन्तु उनका क्रम बदलता रहता है । अत: मध्य महासागरीय कटकों में लावा के बाहर निकलकर शीतल पर्पटी में परिर्वतन होने की प्रक्रिया में शैलों पर उस समय प्रचलित चुम्बकत्व के काल की गणना की जा सकती है | मध्य महासागरीय कटकों के दंश से दोनों ओर समान मात्रा में तली का प्रसारण ही नहीं बल्कि समानान्तर चुम्बकत्व के प्रभाव की धारियाँ भी अध्ययन में पाई गई हैं । पुराचुम्बकत्व की ये धारियाँ महासागरीय तली के निरन्तर प्रसारित होते रहने की प्रतीक हैं । तली के विस्तारण की गति सभी स्थानों पर समान नहीं रही है । यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि तली के विस्तारण की दर मध्य महासागरीय कटक के एक ओर की ही विस्तारण दर होती है । अत: यदि यह कहा जाये कि किसी सागरतली की विस्तारण दर दो से.मी. प्रतिवर्ष है तो इसका अर्थ होगा कि वहाँ कुल प्रसारण 2 + 2 = 4 से.मी. हुआ है । नवीनतम खोजों से जानकारी मिली है कि प्रशान्त महासागर में अधिकतम विस्तारण दर 6 से 9 से.मी. प्रतिवर्ष (अत: कुल विस्तारण 12 से 18 से.मी. प्रतिवर्ष) है । हिन्द महासागर में यह दर 1.5 से 3 से.मी. तथा अटलाण्टिक महासागर में दो सेण्टीमीटर प्रतिवर्ष है । इस प्रकार इन अध्ययनों से महाद्वीपों व महासागरों की अस्थिरता की संकल्पना भी प्रमाणित होती है । यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि महाद्वीप व महासागरीय बेसिन सदा से गतिशील रहे हैं । इस तथ्य को स्वीकारने पर महाद्वीपीय विस्थापन की विचारधारा को प्लेट विवर्तनिकी संकल्पना से पुन: बल मिला है ।


महाद्वीपीय विस्थापन- 

पुराचुम्बकत्व व महासागर तलीय विस्तारण से सम्बन्धित नवीनतम खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि महादवीप व महासागरीय बेसिन कभी भी स्थिर व स्थाई नहीं रहे हैं । इन खोजों के आधार पर पिछले बीस करोड़ वर्ष की ही अवधि में महादवीपीय विस्थापन से सम्बन्धित जानकारियाँ उपलब्ध हुई हैं । लेकिन वैज्ञानिकों ने ऐसी तकनीकें विकसित कर ली हैं जिनके द्वारा इसके पूर्व की अवधि के लिये भी महाद्वीपों व महासागरों की स्थिति का पुनर्गठन  किया जा सके । ऐसे ही पुनर्गठन का प्रयास वैलेण्टाइन व मूर्स ने किया | उनके अनुसार 70 करोड़ वर्ष पूर्व एक विशाल भूखण्ड था जिसे पैन्जिया प्रथम  कहा गया । पचास से साठ करोड़ वर्ष पूर्व भूगर्भ से आने वाली तापीय संवाहन धाराओं के कारण उसमें भंशन व विस्थापन हुआ । आज से 20 - 30 करोड़ वर्ष पूर्व ये विस्थापित भूभाग प्लेट विवर्तनिकी के कारण पुनः मिल गये जिससे पेन्जिया द्वितीय बना। इसके पश्चात पुन: विस्थापन होने लगा एवं पैन्जिया द्वितीय से अशित स्थलखण्ड वर्तमान महाद्वीपीय विन्यास तक विस्थापित होते रहे हैं । लगभग 8 करोड़ वर्ष पूर्व भारतीय प्लेट के टिथीस सागर को संकुचित करते हुए यूरेशियन प्लेट की ओर बढने के साथ -साथ हिन्द महासागर बनने लगा | लगभग इसी समय अफ्रीकन प्लेट से अलग होकर ऑस्ट्रेलियन - अण्टार्कटिकन प्लेट के दक्षिण की ओर विस्थापित होने से हिन्द महासागर का विस्तार होने लगा था | डीज व होल्डन  ने भी महाद्वीपों के 20 करोड़ वर्ष पूर्व के इतिहास को पुनर्गठित करते हुए प्लेट विवर्तनिकी के आधार पर 65 लाख वर्ष आगे तक की स्थिति भी बता दी।

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