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Thursday, February 6, 2020

क्या आप जानते हैं महाद्वीपों तथा महासागरों की उत्पत्ति कैसे हुई?


Origin of continents and oceans
Origin of continents and oceans




महाद्वीपो तथा महासागरों की उत्पत्ति के सबंध में अनेक मत प्रतिपादित किये गये हैं । जिनमें से मुख्य मतों का विवरण दिया जा रहा है -  : लार्ड केल्विन का मत था । कि पृथ्वी के निर्माण की आरंभिक अवस्था में ही संकुचन के समय ही ऊँचे तथा नीचे भागों का निर्धारण गया था । इस प्रकार ऊपर स्थित स्थलीय भागों  महाद्वीप बने तथा निचले भाग में महासागर का जन्म हुआ। लेपवर्थ  का मत है कि महाद्वीप तथा महासागर पथ्वी के धरातल पर बड़े पैमाने पर वलन  की प्रक्रिया से बने हैं और स्थल अपनति तथा धंसे हुय भाग अभिनति  प्रदर्शित करते हैं । लेपवर्थ ने महाद्वीपों पर फैले हुये वलन तथा विभिन्न महासागरों की तली का अध्ययन करने के बाद उपर्युक्त मत का प्रतिपादन किया है । लेपवर्थ के अनुसार उत्तरी अमेरिका वलन की क्रिया से प्रभावित एक उभरा हुआ आ अवनतीय भाग ही है जिसके दोनों किनारों पर अवनती भाग  स्पष्ट रूप में हष्टिगोचर होते हैं । महाद्वीप का मध्य भाग निचला मैदानी भाग अभिनति के रूप में है | उत्तर अमेरिका तथा दक्षिण अमेरिका एवं यूरोप तथा अफ्रीका के बीच आंध्र महासागर नीचे धंसा हुआ एक अभिनतीय भाग ही है । इस परिकल्पना में भी अनेक त्रुटियां हैं । यह विश्वास करना कि केवल तापी हास तथा संकुचन के कारण बड़े पैमाने पर वलन की क्रिया का होना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है ।

चतुष्फलक परिकल्पना

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महाद्वीपों तथा महासागरों के विन्यास में एक व्यवस्था तथा सममिति के आधार पर एक सिद्धांत 1874 ई. में लूथियन ग्रीन ने अपनी चतुष्फलक की परिकल्पना को प्रतिपादित किया इस परिकल्पना में उसने यह बतलाया कि जल थल के वितरण में एक चतुष्फलक का विन्यास है । चतुष्फलक एक त्रिमितीय आकृति है जो चार समबाहु त्रिभुजों के योग से बनती है । ग्रीन ने अपने सिद्धांत का प्रतिपादन ज्यामिती के दो तथ्यों के आधार पर किया है । लूथियन ग्रीन ने परिकल्पना की कि पृथ्वी एक ऐसे चतुष्फलक के समान है जो अपने शीर्ष पर खड़ा है ऐसी स्थिति में चतुष्फलक के चार चपटे पार्यों पर चार महासागर पाये जाते है।ऊपरी क्षैतिज पार्श्व पर आर्कटिक महासागर का विस्तार है और क्षतिज किनारों पर उन स्थल खण्डों का जो आर्कटिक महासागर के चारों ओर एक मेखला बनाते हैं तीन खड़े किनारों पर उत्तर से दक्षिण महाद्वीप फैले हैं | एक पर उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका है दूसरे पर यूरोप तथा अफ्रीका और तीसरे पर एशिया तथा आस्ट्रेलिया है। निचले शीर्ष पर दक्षिण ध्रुव स्थित है जिसके चारों ओर अंटार्कटिका महाद्वीप फैला हुआ है इन्हीं चार शीर्ष बिन्दुओं के स्थिर भूखण्डों से विस्तृत होकर वर्तमान महाद्वीपों का निर्माण हुआ है । लीथियन ग्रीन की परिकल्पना का आधार उस समय की विचारधारा था कि पृथ्वी धीरे-धीरे की हो रही है तथा सिकुड़ती जा रही है । अतः पृथ्वी की ऊपरी सतह जो पहले ठण्डी हो पुकी * वा भीतरी सिकुड़ते भाग के साथ ठीक-ठीक बैठ नहीं पाती है और कहीं ऊँचा और कहीं नीचा हो गया है । अर्थात ऐसी स्थिति में धरातल की आकृति ऐसी बनती है कि आयतन  कम होते हुये भी क्षेत्रफल अधिक होता है । यह एक प्राकृतिक नियम है कि एक गोले  की जिसका कि आयतन के अनुपात में तल का क्षेत्रफल सबसे कम होता है और वह गोला एक चतुष्फलक का रूप धारण करने की प्रवृत्ति होती है । जे.इब्ल्यू ग्रेगरी ने चतुष्फलक की परिकल्पना को ऊपर बताये गये जल थल के वितरण की विशेषताओं की सहायता से और भी सही ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है । परन्त अब परिकल्पना को कोई मान्यता नहीं मिली है । गणित के सिद्धातों के अनुसार चतुष्फलक जैसी आकति, पृथ्वी जैसे विशाल आकार को गुरुत्व संतुलन मैं नहीं रख सकती है । यदि पृथ्वी चतुष्फलक की आकृति की प्रवृत्ति दिखलाये भी तो चतुष्फलक के किनारों तथा कोनों का भार इतना अधिक होगा कि वे फिर तुरंत बैठ जायेगी और पृथ्वी फिर संतुलित गोले की आकृति में लौट आयेगी ।चूंकि संकुचन के समय पृथ्वी का बाह्य तथा आन्तरिक परतों के बीच अन्तर आ गया था इसलिये चतुष्फलक के रूप में आते समय गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के कारण ऊपरी परत वाली परत पर ध्वस्त होने लगी अथवा नीचे की ओर बैठने लगी । या हम यों कह सकते हैं कि ऊपरी भूपटल निचले चतुष्फलक रूपी पृथ्वी के चपटे चार भागों में चार महासागरों का निर्माण हुआ इन पर जल का भराव इसलिये कि ये सपाट दबे हुये भाग किनारे वाले भागों की अपेक्षाकृत नीचे थे 1 किनारे तथा कोनों वाले भागों पर महाद्वीपों का निर्माण हुआ। इस परिकल्पना के अनुसार तथा स्थल का वर्तमान वितरण पूर्णरूप से समझाया जा सकता है चतुष्फलक इस रूप में है कि उसका उत्तरी भाग चपटा है तथा शेष तीन सपाट भाग दक्षिण में एक बिन्दु पर मिलते हैं । इस प्रकार उत्तरी समतल भाग पर उत्तरी ध्रुव सागर है तथा शेष तीन चपटे भागों में प्रशान्त महासागर, आन्ध महासागर तथा हिन्द महासागर का विस्तार है । इसी प्रकार महासागर से ऊपर उठे हुये चार कोणात्मक किनारे वाले भागों के सहारे क्रमशः उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका यूरोप व अफीक एशिया तथा आस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका महाद्वीप फैले हैं । इस प्रकार उत्तरी ध्रुव के पास जल तथा दक्षिणी भाग के पास स्थल का भाग का होना प्रमाणित होता है | चार सपाट भागों के पदारे महासागरों की स्थिति तथा किनारों के सहारे महाद्वीपों का होना जल थल की पतिधवस्थ स्थिति को प्रमाणित करता है।

वेगनर का महाद्वीप विस्थापन का सिद्धान्त

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1912 ई. में वेगनर ने अपने प्रसिद्ध महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धान्त  को प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त के दवारा स्थल तथा जल के वितरण की अनेक समस्याओं पर प्रकाश पड़ता है। महादवीपों के आकार पर्वत श्रेणियों के विस्तार चट्टानों एवं जीवाश्मों के वितरण आदि को देखकर यह विचार बना कि पृथ्वी के इतिहास में महाद्वीप अपने वर्तमान स्थान पर नहीं थे बल्कि महाद्वीपों का विस्थापन हुआ है। महाद्वीपों के प्रवाहित होने की संभावना का सुझाव फ़्रान्सीसी विद्वान साइडर ने 1858 में दिया था 1908 में टेलर तथा सन 1910 में अल्फ्रेड वेगनर ने स्वतंत्र रूप से अलग-अलग इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया इसके पूर्व 1882 में फिसर ने भी इस विचार को रखा था। वेगनर ने इस सिद्धान्त के पक्ष में अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये किन्तु प्रथम महायुद्ध 1914-18 के कारण यह सिद्धान्त बहुत से वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित नहीं कर सका। अल्फ्रेड वेगनर जर्मनी के एक प्रसिद्ध जलवायु वेत्ता थे । वेगनर के सामने मूलभूत समस्या थी जलवायु सबधी परिवर्तन। भूमण्डल पर अनेक क्षेत्रों में ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनके आधार पर यह ज्ञात होता है कि एक ही स्थान पर जलवायु में समय-समय पर अनेक परिवर्तन हुये हैं। संसार के मध्यवर्ती अक्षांशों के ठण्डे प्रदेशों में कोयले का पाया जाना यह प्रमाणित करता है कि कार्बोनिफेरस युग में वहां की जलवायु ऊष्ण और आई थी और वहाँ की प्राकृतिक वनस्पति घने जंगल के रूप में थी जिससे कालान्तर में कोयले का निर्माण हुआ। इसके विपरीत भारत, दक्षिण आस्ट्रेलिया, ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका में जहां जलवायु अभी ऊष्ण है कार्बोनिफेरस युग में ठंडी जलवायु और हिमाच्छादन के प्रमाण भी मिलते हैं। इससे यह जान पड़ता है कि या तो जलवायु कटिबन्धों का स्थानान्तरण हुआ है और यदि जलवायु कटिबंध स्थिर रहे हैं तो स्थल भागों का स्थानान्तरण हुआ है जो अधिक सही प्रतीत होता है। 

महाद्वीप विस्थापन के प्रमाण-

वेगनर ने अपने मत के पक्ष में विभिन्न क्षेत्रों से अनेक प्रमाण इकट्ठे किये और इन प्रमाणों के आधार पर कल्पना की कि कार्बोनिफेरस युग में संसार के सभी महादेश एक साथ एकत्रित थे और एक महान स्थलखण्ड के रूप में उपस्थित थे। वेगनर ने इस महान स्थलखण्ड का नाम पेन्जिया  रखा है ।  आस्ट्रेलिया अंटार्कटिका प्रायमहाद्वीप, भारत, अफ्रीका तथा दक्षिण अमेरिका मिलकर एक स्थल खण्ड का दक्षिणी भाग  बनाते थे । जिसे अन्य प्रमाणों के आधार पर भू-वैज्ञानिकों ने गोंडवाना लैण्ड  का नाम दिया | उत्तरी अमेरिका, यूरोप तथा एशिया इस स्थलखण्ड का उत्तरी भाग बनाते हैं जिसे लोरेशिया  कहते हैं। इन दोनों स्थलखण्डों के बीच एक लम्बा और सकरा छिछला सागर था जिसका नाम टेथिस सागर  कहते हैं। इस प्रकार पेन्जिया चारों तरफ से एक विस्तृत जलभाग से घिरा हुआ था । जब महाद्वीपों के विस्थापन के संबंध में विवाद चल रहा था तब विस्थापन के अनेक प्रमाण इकट्ठे किये गये | महाद्वीपों के आकार, भूवैज्ञानिक तथा संरचनाओं में समानतायें खोजी गईं इनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं दक्षिणी अमेरिका के आकार का अफ्रीका से गिनी की खाड़ी में जड़ जाने की स भावना । अर्थात अटलांटिक महासागर के दोनों किनारे यदि जोड़े जायें तो वह एक महाद्वीप बन जायेंगे । अर्थात ऐसा प्रतीत होता है कि अटलांटिक के दोनों ओर के स्थल टटकर अलग हो गये हैं । इसे विद्वानों ने जगसाफिट कहा है । इसी प्रकार उत्तरी पश्चिमी आस्ट्रेलिया भारत में तथा उत्तरी अमेरिका यूरोप तथा ग्रीनलैण्ड में जोडे जा सकते है।
अटलांटिक महासागर के दोनों किनारों पर भू-वैज्ञानिक चट्टान समूहों के वितरण की समानता एक महत्वपूर्ण प्रमाण हैं जैसे कार्बोनिफेरस युग की कोयले की परतें दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका तथा भारत में पाई जाती हैं । यह समानता उनमें पाये जाने वाले जीवाश्मों में भी मिलती है जिनमें जानवरों एवम् वनस्पति के जीवाश्म हैं साथ ही प्राचीन पर्वत मालायें भी अटलांटिक के दोनों किनारों पर मिलती हैं ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे एक ही पर्वत माला के हिस्से हो जो टूटकर अलग हो गये हैं । विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि अनेक ऐसे जीव हैं जो एक भाग से दूसरे भाग तक पहुँच सकते हैं । इससे यह प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में ये महाद्वीप आपस में जुड़े रहे होंगे । आन्ध्र महासागर के दोनों तटों पर चट्टानों में पाये जाने वाले जीवावशेष तथा वनस्पतियों के अवशेषों में पर्याप्त समानता पाई जाती है । उत्तरी अमेरिका के पूर्वी भाग तथा यूरोप के पश्चिमी तटीय भागों में कोयले की चट्टानें पाई जाती हैं तथा दोनों भागों में कोयले की चट्टानें समान हैं इन चट्टानों में वनस्पति क्रम में भी समानता पाई जाती है । प्राचीन पर्वत मालायें भी अटलांटिक महासागर के दोनों किनारों पर एक समान पाई जाती हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे एक ही पर्वतमाला के हिस्से हों जो टूटकर अलग हो गये हैं । कार्बोनिफेरस युग की डिलाइट निक्षेपण सर्वप्रथम 1857 में भारत में पहचाना गया था । उसके बाद यह निक्षेपण दक्षिणी आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमेरिका एव ब्राजील में भी मिला । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उस युग में दक्षिण का महाद्वीप गोंडवाना लैण्ड हिम युग से प्रभावित हुआ होगा जबकि उस समय उत्तर के महाद्वीप लारेशिया में ऊष्ण जलवायु थी । इस हिमयुग के अन्य प्रमाण भी दक्षिणी अमेरिका में भी मिले हैं । जैसे हिम से अपर्दित शिलायें रोशे मोन्टनों शिलाओं में कटे हुए वेसिन इमलिन या हिम के द्वारा दूर दराज से लाई शिलायें टिलाइट निक्षेपों में भी ऐसी चट्टानें मिलती है जो दूर से लाई गई हैं। भूगणितीय प्रमाणों  के आधार पर यह ज्ञात हुआ है कि ग्रीनलैण्ड निरन्तर 30 कि.मी. प्रति वर्ष की गति से पश्चिम की ओर खिसक रहा है । क्योंकि उत्तरी अमेरिका और ग्रीनलैण्ड के बीच की दूरी में अन्तर आ रहा है ।

पुरा चुम्बकीय आंकड़े

वेगनर ने सन् 1922 में पुरा चुम्बकीय तर्यों की बात को तो कहा परन्तु उस समय तक चदानों में चुम्बकीय अध्ययन नहीं हो सके थे । लेकिन 60 के दशक में बड़े पैमाने में चट्टानों के परा चुम्बकीय अध्ययन हुये | महाद्वीपों एव महासागरों की तलहटी में अनेक चट्टानें चम्बकीय थी और कणों की दिशा चुम्बकीय उत्तर दक्षिण की ओर हो गई थी । एक बार यह दिशा होने के बाद उसके विस्थापन पर भी प्रारंभिक चुम्बकीय दिशा बनी रही । इस प्रकार एक विशेष युग की चट्टानों के बनने के समय चुम्बकीय ध्रुवों की स्थिति जानी जा सकी । जब विभिन्न कालों में ध्रुव की स्थिति का मान चित्रण किया गया तो पता चला कि ध्रुवों के संदर्भ में महादवीपों की क्या स्थिति थी । इससे यह ज्ञात करने में मदद मिली कि महाद्वीपों का विस्थापन किस दिशा में हुआ है ।

महाद्वीप विस्थापन

उपर्युक्त साक्ष्यों एव प्रमाणों के आधार पर अल्फ्रेड वेगनर ने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि कार्बोनिफेरस युग 400-450 में सभी स्थल भाग एक पिण्ड पेन्जिया के रूप में विद्यमान थे जो बाद में महाद्वीपीय प्रवाह के कारण पेन्जिया का विभंजन  हो गया था जिससे विभिन्न स्थल भाग एक दूसरे से अलग होकर वर्तमान रूप में स्थित हैं । खोजों के द्वारा यह संभावना व्यक्त की गई कि दक्षिणी अमेरिका तथा अफ्रीका लगभग 250 मिलियन वर्ष पूर्व टूटकर अलग हुये।

प्रवाह सिद्धान्त की प्रक्रिया-

विभिन्न अध्ययनों से एकत्रित प्रमाणों के आधार पर वेगनर ने अपने "प्रवाह सिद्धान्त" द्वारा अनेक समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया है । वेगनर ने एक विशाल महाद्वीप जिसका नाम उन्होंने पेन्जिया दिया, में आज के सभी महादवीप जुड़े हुए थे । चट्टानों की बनावट के आधार पर पृथ्वी को तीन प्रकार के पदार्थों से बनी मानते हैं | महाद्वीप अपेक्षाकृत हल्के पदार्थो सियाल  के बने है सखी तलहटी की चट्टानें अपेक्षा भारी पदार्थ की बनी हैं जिसे सिमा कहते हैं । एवं पृथ्वी का भीतरी भाग नीफे  के हैं । इस प्रकार सियाल के बने महाद्वीप पृथ्वी की सतह पर एक जगह एकत्रित हो पेंजिया  के रूप में उपस्थित था इसमें उत्तर का महाद्वीप लारेशिया और दक्षिण का महादवीप गोंडवाना लैण्ड नाम दिया गया । इनके बीच में टेथिस सागर उपस्थित था । गोंडवाना लैण्ड आज की तुलना में दक्षिण ध्रुव के निकट केन्द्रित था तथा दक्षिण अफ्रीका इस ध्रुव के निकट था ।
ऐसा विश्वास किया जाता है कि मेसोजोइक काल में दक्षिण महादवीप टूटने लगा इसके उपरान्त उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका टूटकर अलग हुये तथा वे पश्चिम की ओर विस्थापित हुये । इसी तरह अफ्रीका भारत तथा आस्ट्रेलिया विस्थापित हुये एवं बीच में हिन्द महासागर बना इसी तरह उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका एवं अफ्रीका और यूरोप के बीच अटलांटिक सागर बना ।
वेगनर ने अपने प्रवाह सिद्धान्त द्वारा अनेक समस्याओं को सुलझाने की कोशिश की है इस सिद्धान्त में प्रत्येक प्रवाह में स्थल भाग के प्रवाह तथा स्थानान्तरण के लिये कुछ न कुछ शक्ति का उल्लेख किया गया है परन्तु यह एक ऐसा बिन्दु है जिसको वेगनर ठीक से साबित नहीं कर सके । इस सिद्धान्त के विरुद्ध सबसे बड़ी आलोचना यह है कि वेगनर ने महादवीपीय प्रवाह के लिए जिन शक्तिया का उल्लेख किया है वे शक्तियाँ सर्वथा असमर्थ हैं । महादवीपों का पश्चिम की ओर प्रवाह का कारण वेगनर ने चन्द्रमा और सूर्य की ज्वारीय शक्ति बतलाया है किन्तु यह प्रवाह तभी सभव है जब यह ज्वारीय शक्ति वर्तमान शक्ति से कई लाख गुना अधिक हो । क्योकि स्थल के प्रवाह के लिये शक्ति का अभाव सा जान पड़ता है । विषुवत रेखा की आर प्रवाह उत्पन्न करने वाली शक्ति भी अपर्याप्त जान पड़ती है बहुत से वैज्ञानिक यह प्रश्न भी उठाते हैं कि पेंजिया का टूटना मिसोजोइक काल में ही क्यों प्रारभ हुआ। इसके पहले टूटना क्यों शुरू नहीं हुआ | उनका मत है कि यदि महाद्वीपाय विस्थापन गुरुत्वाकर्षण के कारण हुआ तो यह पृथ्वी के प्रारंभिक इतिहास में क्यों नहीं हुआ?
दूसरी आपत्ति यह उठाई गई है कि यदि महादवीपीय भाग बिना किसी रूकावट के सिमा के तैरते थे तो यह कैसे संभव है कि पश्चिम दिशा में प्रवाहित होते हुये सियाल के किनारों में  वलन पैदा कर सके । अर्थात विस्थापन सिद्धान्त विधि से राकी तथा एन्डीज पर्वतों का निर्माण संभव प्रतीत नहीं होता है । होम्स का मत है कि ऐसा संभव है कि प्रवाह के कारण तटीय तलछटी चट्टानें पर्वतों में बदल जायें और समुद्र तल की चट्टानों ने मुड़कर पर्वतों का निर्माण वेगनर ने महाद्वीपीय प्रवाह का समय एवं दिशा पर ठीक तरह से प्रकाश नहीं डाला है । वेगनर अनुसार महाद्वीपों का विस्थापन कार्बोनिफेरस युग के बाद प्रारंभ होता है इसके पहले पेंजिया किस कारण से स्थिर रहा | वेगनर ने कार्बोनिफेरस युग के पहले के संबंध में कुछ भी नहीं कहा है | इस प्रकार यदि सभी पहलू पर विचार करें तो वेगनर का सिद्धान्त पूर्ण रूप से सही साबित नहीं है । फिर भी इस सिद्धान्त से अनेक भौगोलिक एवं भू-वैज्ञानिक समस्याओं को सुलझाने में मदद मिली है । समय के साथ नए अनुसंधानों ने इस सिद्धांत की पुष्टि की है । आधुनिकतम विचार प्लेट विवर्तनी  का प्रतिपादन किया गया है । इस सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी की सतह से करीब 200 कि.मी. की गहराई के मेटल में जो संवाहनिक धाराएं चल रहीं हैं उसके कारण समुद्र तली के पर्पटी के हिस्से या प्लेट्स एक दूसरे से टकराती हैं एवं महादवीपों के किनारे पर भीतर की मुड़ जाती हैं और पृथ्वी के भीतर गर्म लावा में मिल जाती हैं । जबकि पर्पटी की दरारों के निकट पिघला लावा भूगर्भ पर जम जाता है इसके कारण नवीन पर्पटी का निर्माण होता है । इस प्रकार पर्पटी के विस्थापन से महाद्वीपों का विस्थापन होता है।

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