संस्कृत व्याकरण शिक्षणJagriti PathJagriti Path

JUST NOW

Jagritipath जागृतिपथ News,Education,Business,Cricket,Politics,Health,Sports,Science,Tech,WildLife,Art,living,India,World,NewsAnalysis

Saturday, February 29, 2020

संस्कृत व्याकरण शिक्षण

Sanskrit vyakaran shikshan
संस्कृत व्याकरण शिक्षण

 

मानव विचारों की अभिव्यक्ति शुद्ध परिष्कृत परिमार्जिक करने के लिए भाषा विशेष का व्याकरण अध्ययन आवश्यक है। संस्कृत भाषा के व्याकरण का अध्ययन-अध्यापन की परम्परा बहुत प्राचीन है।

वररुचि ने व्याकरण के पांच प्रयोजन माने हैं- 
1. रक्षा, 2. ऊह, 3. आगम, 4. लघु, 5. असन्देह । 
व्याकरण शिक्षण के सम्बन्ध में तीन मत प्रचलित है।
1. प्रथम मत- इस मत के समर्थक औपचारिक संस्कृत व्याकरण शिक्षा पर अधिक बल देते है। वे मानते है इससे मानसिक अनुशासन प्राप्त होता है। सूत्रों के कण्ठस्थीकरण से स्मरणशक्ति तर्कशक्ति, निरीक्षण शक्ति का विकास होता है।
2. द्वितीयमत- इनके अनुसार व्याकरण शिक्षण की आवश्यकता नही है। अपितु भाषा मौखिक विधि से अथवा संरचनात्मकोपागम से पढना चाहिए ताकि बार-बार बोलने से सुनने से लिखने, तथा पढने से भाषा स्वयं आ जाती है। व्याकरण अतिदुरुह, नीरसः शुष्क विषय है। अतः इसके पठन से छात्र निरुत्साहि हो जाते है।
3. तृतीयमत- ये समन्वयात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। मध्यममार्गी है। इनके मत में व्याकरण शिक्षण आवश्यक है। किन्तु इसका शिक्षण रुचिकर करना चाहिए। नियमों को रटन की अपेक्षा व्याकरण प्रयोग करना चाहिए।

 व्याकरण शिक्षण के उद्देश्य

व्याकरण शिक्षण के उद्देश्य तीनों स्तरों पर भिन्न-भिन्न है पर सभी स्तरों के सामान्य उद्देश्य निम्न है। 
    1. छात्रों को संस्कृत भाषा के ध्वनि तत्वों का परिचय करना।   2. विभित्र धातुरूपों एवं शब्दरूपों का ज्ञान कराना।
   3. शुद्ध वाक्य रचना की योग्यता उत्पन्न करना।
    4. तर्कशक्ति एवं निरीक्षण शक्ति उत्पन्न करना।
   5. शब्दकोष में वृद्धि करना। 
   6. संस्कृत में रचनाशक्ति का विकास करना। 
   7. भाषा के शुद्धलेखन का एवं उच्चारण का अभ्यास करना। 
   8. व्याकरण के नियमों एवं उसके प्रयोग का ज्ञान प्रदान करना।
9. छात्रों में अर्थग्रहण की क्षमता उत्पन्न करना। 


पाठ्यवस्तु का चयन 

व्याकरण को पढ़ाते समय छात्रों के लिए विषयवस्तु का चयन निर्धारित पाठ्यक्रम पाठ्यपुस्तक आदि के आधार से करना चाहिए। इस प्रक्रिया में शिक्षण सत्रों का अनुकरण करता हुआ मातृभाषा में छात्र जो पढ़ चुका है, अवगत हो चुका है, उसी को ही प्रारम्भ में पढाना चाहिए।

पाठ्यवस्तु का क्रम इस प्रकार कर सकते है।
संस्कृत वर्णमाला- उच्चारणस्थान, वर्गों का वर्गीकरण करना। 
सन्धि-स्वर-व्यजन विसर्ग।
 नाम शब्द-संज्ञा सर्वनाम विशेषणाद
 लिंग वचन
कारक 
धातुरूप
समास
प्रत्यय
उपसर्ग 
वाक्य रचना
अनुवाद आदि व्याकरण शिक्षण में आते हैं।

व्याकरण शिक्षण की विधि

व्याकरण शिक्षण को रोचक आकर्षक सुग्राह्य करने के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग प्राचीन काल से ही करते आ रहे है।

प्राचीन विधि

व्याकरण शिक्षण की प्राचीन विधि के अनेक रूप दिखाई देते है। वस्ततः इस विधि में विषय वस्तु के कण्ठस्थाकरण पर बल देते है । पाणिनि ने निगमन विधि पर बल दिया। महाभाष्य में भी इस विधि का दर्शन होते है। किन्तु इसमें निगमन के लिए महत्व देकर आगमन की ओर गये। भट्टोदीक्षित ने सिद्धान्तकौमुदी में निगमन से आगमन बल दिया। 17वीं शताब्दी पर्यन्त यह विधि पाठशाला, आश्रम, गुरुकुल, मठ तथा विद्यापीठ आदि में नियमित रूप से प्रचलित थी उस समय बहुधा शिक्षण मौलिक रूप से होता था एवं स्मरण कार्ये पर बल देते थे।

सूत्रविधि-

कण्ठस्थीकरण विधि- यह व्याकरण की प्राचीनतम विधि है इस विधि में सामान्य से विशेष की ओर सूत्र का अनुकरण किया जाता था।
 यह विधि वर्तमान परिस्थितियों में भी सफल है। मनोवैज्ञानिक भी स्वीकार करते है कि विषयपर अधिकार स्मृति से ही आता है। मनोवैज्ञानिक इस कथन को स्वीकार करते है कि विषय को समझकर स्मरण करना चाहिए तो उससे कोई हानि नहीं होती। विषयपर अधिकार तो स्मरण से ही होता है । तो विषय को स्मरण करके समझे एवं समझकर स्मरण करे। दोनों में अन्तर एक है कि एकविधि नीरस दूसरी रुचिकर इससे परिणाम पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।

पारायणविधि-

आचार्य पाणिनि के समय पारायण विधि प्रचलित थी। इसविधि में भी कण्ठस्थीकरण पर बल देते है। सहितापाठ,पदपाठ, क्रमपाठ आदि अनेक प्रकार से वैदिक मन्त्रों का सस्वरपाठ करने को पारायण कहते है।
नियमानुसार पारायणकृतछात्र पारायणिक होता था । पारायण अनेक प्रकार से होता था। पाठ की कठिनता सरला के अनुसार इसकी संख्या होती थी। पञ्चकाध्ययन (पाठ को पञ्च बार पढना) पञ्चवार (शब्दो को पाँच बार कथन करना) एवं पञ्चरूपम् (पञ्चवार पठनम्)
उच्चारण के समय अशुद्धि के अनुसार छात्रों की परीक्षा होती थी एक अशुद्धि एकान्यिक दो अशुद्धि द्वेयन्तिक त्रेयान्तिक आदि कहते थे।

अर्थावबोधन विधि 

या वादविवाद विधि- प्राचीन पद्धतियों में कण्ठस्थीकरण के साथ अवबोध पर भी बल देते थे। यास्क ने निरुक्त में अर्थबोधन के लिए शब्दों का स्पष्टीकरण किया है। पतंजलि भी ज्ञान करके कण्ठस्थीकरण को स्वीकार करते है।
व्याख्या विधि- पाणिनि के सूत्रों पर कात्यायन ने वार्तिको भी रचना की। उसने अष्टाध्यायी से परित्यक्त नियमों की पूर्ति भी की। कात्यान के बाद पतंजलि ने महाभाष्य की रचना की इन्होंने पाणिनि के सूत्रों की स्पष्ट व्याख्या की है। इसमें निम्न प्रक्रिया स्वीकार की गई। 1. चर्चा/विग्रह सूत्रपदाशदि 2. उदाहरण 3. वाक्य अध्याहार 4. प्रत्युदाहरण

अव्याकृतिविधिः/भाषा संसर्ग विधि-

 इस विधि में व्याकरण की शिक्षा पृथक रूप से न देकर वरना भाषा की शिक्षा के साथ नियमों के संकेत के बिना उसके शुद्ध प्रयोग को कहकर पढाकर, लिखाकर, सुनाकर अवगमन की योग्यता छात्रों में विकसित की जाती है। यह विधि इस मत का समर्थन करती है कि जैसे मातृभाषा का व्याकरण के ज्ञान के बिना विशुद्ध प्रयोग कर सकते है वैसे ही संस्कृत भाषा का भी विशुद्ध प्रयोग सीख सकते है।
इसका प्रयोग प्राथमिक स्तर पर कर सकते है। जब संस्कृत मौखिकविधि से सीखते है एवं पाठ्यपुस्तक सरल वाक्यों का प्रयोग करते है। किन्तु माध्यमिक, उच्च माध्यमिक, उच्च स्तर पर व्याकरण के क्रमबद्ध औपचारिक ज्ञान प्रदान करने की आवश्यकता है जिसमे छात्रों में भाषा के शुद्ध प्रयोग के प्रति आत्मविश्वास उत्पन्न होता है।

अन्वय व्यतिरेक विधि- पतंजलि ने प्रकृति प्रत्यय के स्पष्ट ज्ञान के लिए इसविधि के प्रयोग पर बल दिया है।

आगमनविधि- 

इस विधि में "उदाहरण प्रदर्शन से नियम की ओर” शिक्षण सूत्र का प्रयोग किया जाता है। पाणिनि ने इस विधि को आधार मानकर ही सूत्रों को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया।

निगमनविधि- पतंजलि ने व्याकरण के लिए निगमनविधि को सर्वाधिक उपयुक्त माना है इस दृष्टि से पूर्व में नियम प्रस्तुत करके उदाहरण प्रतिउदाहरण किया जाता है।


आधुनिक विधि 

1. पाठ्यपुस्तक विधि-

 इस विधि में व्याकरण के शिक्षण में पाठ्यपुस्तक में प्रदत्त व्याकरण सम्बन्धिज्ञान को स्मरण किया जाता है। मोरे-धीरे कात्र शिक्षक की सहायता से स्मृतनियम का प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में करता है। पाठ के अन्त में अभ्यास कार्य को करता है।

2. सहयोगविधि/समवाय विधि

इस विधि में व्याकरण शिक्षा पृथक् रूप से नहीं दी जाती है। अपित गद्य-पद्य रचना एवं कथा अनवाद आदि के अध्ययन के समय व्याकरण का प्रासंगिक रूप से पाठन होता है। शिक्षक तत् सम्बन्ध नियम की व्याख्या करता है।

3. आगमननिगमनविधि-

व्याकरण शिक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि है। यह प्राचीनकाल में पाणिनि पतंजलि ने क्रमशः स्वीकार है। वर्तमान समें आगमन विधि निगमन विधि के साथ ही प्रयोग करके व्याकरण शिक्षण सुग्राह्य किया जाता है। इसविधि के दो सोपान है। आगमन एवं निगमन
आगमन में पहले उदाहरण प्रस्तुत करके नियम की ओर जाते है। तथा विविध प्रयोगे से उदाहरणों से नियम की पुष्टि की जाती है।
(1) यह वैज्ञानिक विधि है। (2) शिक्षण क्रमबद्ध होता है। (3) शिक्षा सरल सरस एवं रुचिकर होता है। (4) सूत्रों को रटने की अपेक्षा समझने पर बल।

2 comments:


Post Top Ad