• भूकम्प
• जब भूपटल पर कम्पन होता है तो हम उसे भूकम्प की संज्ञा देते है । भूकम्प मानव के लिये एक विनाशकारी घटना है जब किसी क्षेत्र में भूपटल पर कम्पन होता है तो क्षण मात्र में अनेक परिवर्तन हो जाते हैं । सभी लोग भूकम्प को पृथ्वी की सतह पर कम्पन से समझते हैं । यदि हम पूरी पृथ्वी को लें तो यह पता चलता है कि किसी न किसी भाग में हर दो तीन घटे में भूकम्प आते रहते है किन्तु इनमें से अधिकांश अल्पकालीन एवं बहुत धीमें होते हैं जिनको कभी कभी महसूस भी नहीं कर पाते है । इस तरह के भूकम्पों का अनुभव केवल ग्रहणशील यंत्रों के द्वारा ही कर पाते है । तीव्र भूकम्प लम्बे अन्तराल से आते हैं । तीव्र भूकम्प में कम्पन की लहरे तालाब या समुद्र के पानी की लहरों के समान पृथ्वी की सतह पर चलती है ये लहरे ऊपर उठती और नीचे गिरती हुई आगे बढ़ती है जिनके कारण पृथ्वी की सतह पर कम्पन होता है और घर, पेड़ आदि हिलने लगते है । 26 जनवरी 2004 की कच्छ गुजरात भूकम्प की घटना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। जिस प्रकार तालाब या समुद्र के शांत जल में पत्थर का टुकड़ा फेंकने से गोलाकार लहरे केन्द्र से चारों तरफ बाहर की तरफ फैलती है । जैसे -जैसे लहरे केन्द्र से दूर होती जाती है इनकी शक्ति तथा तीव्रता में कमी होती जाती है । भूकम्प का प्रभाव प्राय : दो रूपों में देखा जाता है। (1) उत्पत्ति केन्द्र से लहरें चारों तरफ को प्रवाहित होती है जिनका प्रभाव क्षैतिज होता है । (2) अधिक तीव्रता होने के कारण धरातलीय भागों में ऊपर नीचे की तरफ लम्बवत रूप में फैलाव होने लगता है इस तरह के भूकम्प बहुत अधिक विनाशकारी होते हैं । भूकम्प का जहाँ सर्वप्रथम अर्विभाव होता है उसे “भूकम्प मूल कहते है । जहाँ सर्वप्रथम लहरों का अनुभव होता है उसे भूकम्प केन्द्र कहते है। सिस्मोग्राफ एक यंत्र होता है जिसमें भूकम्प अंकित होता है । यह यंत्र इतना ग्रहणशील होता है कि हजारों कि.मी. दूर हुए भूकम्प को अथवा समीप के अत्यंत हल्के भूकम्प को भी अंकित कर लेता है इसलिये इससे तुरंत ही यह पता चल जाता है कि लगभग कितने कि.मी. दूर एवं किस दिशा में किस तीव्रता के भूकम्प का पता चल जाता है ।
भूकम्पों का वर्गीकरण तथा उत्पत्ति के कारण
भूकम्पो को उनक उत्पत्ति, स्थान की गहराई के अनुसार निम्नलिखित तीन भागों में बांटा जाता है ।
सामान्य भूकम्प उत्पत्ति स्थल की गहराई 0 से 50 किमी. तक होती है ।
मध्यम भूकम्प उत्पत्ति स्थान की गहराई 50 से 250 किमी. तक होती है ।
गहरे भूकम्प
उत्पत्ति स्थल की गहराई 250 से 750 किमी. तक होती है । अधिकांश भूकम्प प्रथम श्रेणी में आते है और उनके उत्पत्ति केन्द्र की गहराई प्राय : 20 से 25 किमी. से कम होती है ।
भूकम्पों की उत्पत्ति के आधार
भूकम्पों को हम उनकी उत्पत्ति के कारणों के आधार पर तीन प्रमुख भागों में बाँट सकते है ।
ज्वालामुखी भूकम्प -इस प्रकार के भूकम्प मुख्य रूप से ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाये जाते है । जब ज्वालामुखीय विस्फोट होता है तो गर्म लावा तथा गैसें भूगर्भ से बाहर निकलने के लिये जोर से कोशिश करती हैं और बड़ी तेजी से ऊपर आती हैं इनके झटके से भूपटल में कम्पन होने लगता है | ज्यादातर भूकम्प या तो उद्गार के पहले होता है या उद्गार के साथ साथ | ज्वालामुखी से उत्पन्न भूकम्प प्राय : तीव्र नहीं होते हैं और उनकी तीव्रता का अनुभव सीमित क्षेत्रो में होता है। परन्त इन भकम्पों की तीवता ज्वालामखी के निकटवर्ती क्षेत्र में अधिक होती है।
भूपटल भ्रंश भूकम्प
ये भूकम्प आकस्मिक भूसंचलन के कारण होते हैं | भूपटल में प्राय : 5 से 25 किमी. तक की गहराई में चट्टानों के टूटने और उनके भ्रंशतल पर ऊपर नीचे खिसकने से आकस्मिक भूसंचलन होता है और भूपटल पर कम्पन्न होने लगता है, ऐसे भूकम्पों को अंशमूलक भूकम्प कहते हैं । विश्व के अधिकांश भूकम्प इसी वर्ग में आते है इस प्रकार के भूकम्प की तीव्रता में अलग अलग स्थानों पर भिन्नता पाई जाती है । यही कारण है कि अधिकांश भूकम्प नवीन मोड़दार पर्वतों की पेटी में आते रहते हैं । इसी प्रकार अफ्रीका की दरार घाटी में भी अनेक भूकम्पों का अनुभव होता है।
पाताली भूकम्प
जो पृथ्वी की सतह से 250 से 700 कि मी. तक की गहराई में उत्पन्न होते है । इनकी उत्पत्ति के कारण वैज्ञानिक आज भी ठीक से नहीं जानते हैं । बहुत अधिक गहराई में चट्टानों में आकस्मिक विभंग के कारण भी इस प्रकार के भूकम्प आ सकते हैं । इस तरह के भूकम्प प्राय : कम आते हैं । इन भूकम्पों को तक्षणी भूकम्पों के अंतर्गत ही समझना चाहिये । भूकम्प संबंधी कुछ परिभाषए : भूकम्प प्रायः कुछ ही सैकण्ड या अधिक से अधिक दो मिनिट तक अनुभव किया जाता है । अधिकांशत : यह देखा गया कि मुख्य भूकम्प के पहले हल्के भूकम्प के झटके आते है जिन्हें पूर्व कम्प कहते है । मुख्य भूकम्प के बाद में भी रह रहकर हल्के भूकम्प आते है जिन्हे अनुकम्प कहते है । भूकम्प प्राय : पृथ्वी की सतह से कुछ कि मी. नीचे उत्पन होते है । पृथ्वी के भीतरी भाग में वह स्थान जहां चट्टानों में हलचल पैदा होती है उसे भूकम्प का उत्पत्ति केन्द्र कहते हैं । इस बिंदु से कम्पन सबसे पहले उत्पत्ति केन्द्र के ठीक ऊपर पृथ्वी की सतह पर पहुंचता है इस बिंदु को अधिकेन्द्र कहते है । भूकम्प की तीव्रता भी सबसे अधिक अधिकेन्द्र पर ही होती है यहां पर मकान आदि केवल ऊपर नीचे होते है । इसलिये उनमें अधिक क्षति नहीं होती है । सबसे अधिक नुकसान वहां होता है जहां लहरें पृथ्वी की सतह पर तिरछा पहुंचती हैं । तथा भूकम्प की लहरों की गति में बहुत अंतर नहीं आता है । भूकम्प की लहरें अधिकेन्द्र से दूर जाने पर भूकम्प की तीव्रता कम हो जाती है।
भूकम्प आने के कारण
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कुछ भूकम्प बहुत तेज विनाशकारी होते हैं। परन्तू कुछ भूकम्प बहुत ही साधारण प्रकार के होते है जिनका अनुभव या तो केवल भूकम्प लेखन द्वारा ही हो पाता है । यह भूकम्प इतने हल्के की जिससे किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं होता है इस तरह के भूकम्प को सामान्य कहते है इनकी उत्पत्ति के निम्न कारण हो सकते हैं।
भारी सागरीय भूकम्प द्वारा
जब सुनामी लहरें उत्पन्न होती है तो उनके तट से टकराने पर आस पास के भागों में कम्पन होता है जिससे भूकम्प आते है ।
~चूने की चट्टानों के क्षेत्र में गुफाओं की छत पसकने से कभी कभी चूने की चट्टानों के क्षेत्र में गुफाओं की छत नीचे पसकती है तो चट्टानों में कम्पन होता है और सामान्य प्रकार के भूकम्प अनुभव किये जाते है ।
~भूस्खलन के कारण भी सामान्य भूकम्प
कभी कभी भूस्खलन के कारण भी सामान्य भूकम्प का अनुभव होता है।
~पर्वतीय भाग में हिमखंड नीचे की ओर धसकने से
हिमवंद पर्वतीय भाग में नीचे की ओर खिसकते है तो उससे भी साधारण कम्पन्न होता है और भूकम्प का अनुभव होता है ।
~मानव निर्मित अणुबमों के विस्फोट से उत्पन्न भूकम्प वर्तमान समय में अणुबमों के विस्फोट तथा परीक्षण द्वारा भी भूकम्प का अनुभव किया जा सकता है।
भूकम्प का विश्व वितरण
पृथ्वी की सतह पर शायद ही ऐसा कोई स्थान है जहाँ पर भूकम्प न आया हो परन्तु भूकम्प के कुछ भाग इतने स्पष्ट नजर आते हैं जहाँ भूकम्प आने की हमेशा सम्भावना बनी रहती हैं। कुछ भाग स्थिर है जहाँ प्रत्यक्ष रूप से भूकम्प आने की सम्भावना कम रहती हैं । यदि हम पृथ्वी के नक्शे में भूकम्प क्षेत्रों के वितरण को देखें तो स्पष्ट रूप से पता चलता है कि कुछ भागों में भूकम्प अन्य भागों की अपेक्षा अधिक आते है । इनमें दो क्षेत्र प्रधान है पहला क्षेत्र जो सबसे विस्तृत है प्रशान्त महासागर के चारों ओर तटवर्ती भागों में फैला है और दूसरे क्षेत्र में भूमध्य सागर के तटवर्ती भाग दक्षिण पश्चिम एशिया तथा हिमालय पर्वत के समीपवर्ती भाग शामिल है इन 'दोनों स्थानों में नवीन मोडदार पर्वतों की श्रखला फैली है जहा पर भूपटल का भाग स्थिर है इस भाग में उच्चावच और भश होते रहते हैं। कुछ क्षेत्रों में सक्रिय ज्वालामुखा मा पार है। प्रशान्त महासागर के चारों तरफ ज्वालामखी की विशाल श्रखला है
भारत में भूकम्प क्षेत्र
भारत में भूकम्प के मुख्य रूप से तीन क्षेत्र है पहला क्षेत्र भारत के उत्तरी भाग में हिमालय पर्वत के क्षेत्र में फैला है जो पश्चिम में जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्व में अरूणाचल प्रदेश तथा उत्तर-पूर्वी भारत में फैला है । भारत में भूकम्प का यह प्रमुख क्षेत्र है । हिमालय के दक्षिण में एक लंबा सकरा क्षेत्र है जिसमें गंगा, सिन्धु नदियों के मैदान तथा राजस्थान के अधिकांश भाग शामिल है । तीसरा क्षेत्र कच्छ (गुजरात), नर्मदा घाटी का मध्य तथा निचला भाग है जहां पिछले कुछ समय से भूकम्पों का अनुभव किया गया है । भूकम्पों के अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है कि भारत के भूकम्प सभी तक्षणी वर्ग के है और इनके उत्पन्न होने का संबंध हिमालय की नवीन मोइदार पर्वत श्रृंखला से है । अभी तक हिमालय क्षेत्र में पूर्ण स्थिरता नहीं आई है और भूपटल में वलन तथा भ्रश होते रहते है जिसके कारण इसके किसी भी भाग में भूकम्प आने की संभावना बनी रहती हैं | सबसे ज्यादा भूकम्प भारत के उत्तरपूर्वी क्षेत्र में आते है क्योंकि यहाँ की चट्टानें कमजोर तथा अस्थिर है ।
भूकम्पों के प्रभाव
यह अनुभव किया गया है कि भूकम्पों का स्थलखंडों पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है किंतु कभी-कभी पटल पर कुछ प्रभाव देखने को मिलते है । सबसे अधिक विनासकारी प्रभाव के कारण ही भूकम्प को मानव के लिये विनासकारी माना जाता है । मानवीय दृष्टि से भूकम्पों का प्रभाव अत्यंत महत्वपूर्ण है । भूकम्पों से जान और माल की बहुत क्षति होती है भूकम्पों के विनाशक तथा भयानक रूप से मनुष्य प्रारंभ से परिचित है भूकम्प के कारण सबसे अधिक हानि घनी आबादी वाले क्षेत्रों में देखने को मिलती है । कुछ क्षणों में हजारों मकान धरासाई हो जाते हैं | सड़के फट जाती है । रेलवे लाइन, पुल आदि टूट जाते है । हजारों मनुष्यों की मृत्यु हो जाती है | बहुत से लोग घायल हो जाते है अर्थात भूकम्प के कारण कुछ ही क्षणों में सारा जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है । समुद्र में भूकम्प के प्रभाव से बड़ीबड़ी लहरें उत्पन्न होती है । जिन्हें सुनामी कहते है । जब ये लहरें समुद्र तटीय भाग से टकराती है तो उनसे धन जन की भयंकर हानि होती है भूकम्प का सबसे अधिक प्रभाव नगरों में होता है । भूकम्प के कारण इमारतें ध्वस्त हो जाती है । कल कारखाने बर्बाद हो जाते है । भूकम्प के कारण कभी-कभी दरार का निर्माण होता है । इसी तरह पर्वतीय भागों में खड़े ढाल के पर्वतीय भागों में भूस्खलन से स्थल के बड़े-बड़े खण्ड टूटकर नीचे की तरफ खिसकने लगते है इससे कई बार जन, धन की भारी हानि होती है ।
भूकम्पीय तरंग
भूकम्पीय तरंगों के अध्ययन के पिछले कुछ वर्षों में हमें पृथ्वी की आंतरिक संरचना के बारे में नई जानकारी प्राप्त हुई है । यहां हम भूकम्प तरंगों के प्रकार और उनकी विशेषताओं के बारे में विचार करेंगे । भूकम्पीय तरंगों द्वारा पृथ्वी की आंतरिक बनावट के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करने में मदद मिलती है । जब भूकम्प मूल से भूकम्प प्रारभ होता है तो इस केन्द्र बिन्दु से भूकम्पीय लहरें उठने लगती है । ये भूकम्पीय तरंगें तीन प्रकार की होती है
P,S और L तरगें कहते हैं। सिस्मोग्राफ पर जब भूकम्प अकित होता है तो सबसे पहले P तरंगें उसके बाद S तरंगे अंत में L तरंगें अकित होती है । P प्राथमिक तरंग है । P तरंगें ध्वनि तरंगों के समान होती है
इनमें कपन्न लहरों की दिशा में आगे और पीछे की ओर होता है ।
इन तरंगों को अनुलंब तरंगें या सम्पीडन तरंगें भी कहते हैं ये तरगे ठोस, द्रव तथा गैसीय पदार्थ सभी से होकर गुजरती हैं । इन लहरों का उद्भव चट्टानों के कणों के सम्पीड़न से होता है । ये लहरें सबसे अधिक तीव्र गति से चलती है इनका तीव्रता इनके मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों की सघनता पर निर्भर करती है । प्राथमिक लहरों की आसत गति 8 कि.मी प्रति सैकण्ड होती है । परंतु अलग -अलग प्रकार की चट्टानों में उनका गात भिन्न -भिन्न होती है ।
S तरंगें आडी अथवा अनप्रस्थ तरंगें इन तरंगों में अणुओं की गति लहर की दिशा के समकोण पर होती हैं इन तरंगों को द्वितीय अथवा गौण तरंग भी कहते है । इनकी गति प्राथमिक तरंग की तुलना में कम होती है । S तरंगें केवल ठोस पदार्थों से ही होकर गुजर सकती हैं । ये तरल पदार्थ से होकर नहीं गुजर सकती है । यही कारण है कि आड़ी लहरें सागरीय भागों में पहुंचने पर लुप्त हो जाती हैं | इन तरंगों को विध्वंसक लहर भी कहते है । साधारण रूप से P तरंगों की गति S तरंगों की गति से 9.4 गुना अधिक होती है । P और S तरंगों का पृथ्वी के आंतरिक भागों से धरातल तक पहुंचने का मार्ग अवतल होता है जिससे यह पता चलता है कि गहराई के साथ इनकी गति बढ़ती है । पृथ्वी के अंदर विभिन्न घनत्व वाली परतें पाई जाती है । L तरंगें धरातलीय तरंगें अन्य दो तरंगों की अपेक्षा कम वेगमान होती हैं। इनका भ्रमण पथ पृथ्वी का धरातलीय भाग होता है चूंकि ये तरंगें पृथ्वी का पूरा चक्कर लगा कर अधिकेन्द्र पर पहुंचती है । अत : इन्हें P तथा S तरंगों की अपेक्षा अधिक लंबा मार्ग तय करना पड़ता है । इन तरंगों को लंबी अवधि वाली तरंगें अथवा लंबी तरंगें कहा जाता है | L तरंगें P और S तरंगों के बाद सिस्मोग्राफ पर अंकित होती है, क्योंकि भूपटल पर इनका भ्रमण पथ अत्यंत जटिल होता है । ये तरंगें P और S तरंगों के बाट लेखन केन्द्रों में पहुंचती हैं । इनका भ्रमण समय अधिक होता है ये सबसे अधिक दूरी तय करती है । अधिक गहराई पर जाने पर धरातलीय तरंगें लुप्त हो जाती है । ये तरंगें जल से भी होकर गुजरती है और इनका प्रभाव स्थल और जल दोनों पर होता है । इन तरंगों को L अक्षर (Long-L) तरंग के नाम से जाना जाता है । इनमें कम्पन्न की गति सबसे अधिक होती है।
यदि पृथ्वी की चट्टानों की बनावट सर्वत्र समान घनत्व की होती तो इन तीनो तरगो का वेग समान होता परतु धरातल में ऐसा नहीं होता है अधिक गहराई में जाने पर इन तरगो की गति में पर्याप्त अंतर मिलता है इससे यह ज्ञात होता है कि पृथ्वी के अदर विभिन्न घनत्व वाली चट्टानों की परतें पाई जाती है जिनके घनत्व में अंतर पाया जाता है । अध्ययनों के आधार पर कुछ विद्वानों ने P,S और L तरंगों की अपेक्षा कुछ और भूकम्पीय लहरों का पता लगाया है यद्यपि लहरें तो P,S तथा L ही है । परत इनकी गति में अंतर होने के कारण इनका नाम (Pg-sg) दिया गया है । Pg-Sgतरंगें मुख्यत : पृथ्वी की ऊपरी परत से होकर भ्रमण करती है। इनमें Pg की गति 5.4 तथा Sg की गति 3.3 कि मी. प्रति सैकेण्ड होती है ।
कोनार्ड महोदय ने 1923 में आस्ट्रियन आल्पस में आगे भूकम्प का अध्ययन करते हुए एक तरंग का पता लगाया जिसे P' तरंग कहते हैं । जिसकी गति P और Pg के बीच की होती है इस प्रकार P* तरंग पृथ्वी की मध्यवर्ती पर 6.0 से 7.2 कि.मी. प्रति सैकण्ड की गति से होकर भ्रमण करती है । फिर जेफ्रीन ने 1926 के जर्सी तथा हेयर फोर्ड में हुए भूकम्पों में एक तरंग का पता लगाया जो कि मध्यवर्ती परत से P* तरंगों की लगभग आधी गति से यात्रा करती है इसका नाम S* तरंग दिया गया । यह P*-S* तरंग युग्म P-S तथा Pg-SG के मध्य का है। इन तीनों विभिन्न तरंगों तथा उनकी विभिन्न गतियों के आधार पर पृथ्वी के विभिन्न घनत्व वाली विभिन्न परतों का पता लगाया गया है । Pg तरंग 5.4 कि.मी. तथा Sg तरंग 3.3 कि.मी, प्रति सैकण्ड की गति से पृथ्वी की ऊपरी परत में भ्रमण करती है अध्ययनों के आधार पर यह पाया गया है कि Pg-Sg तरंगें इस गति से केवल ग्रेनाइट चट्टान में भ्रमण कर सकती हैं
P*s* को संबंध ऊपरी परत के नीचे स्थित मध्यवर्ती परत से है और इन तरंगों की गति Pg-Sg तथा P-Sके बीच की है इससे यह पता चलता है कि ऊपरी परत के नीचे एक मध्यवर्ती परत है जो परतदार और रूपातरित चट्टार्ना की बनी है जिसमें बेसाल्ट चट्टान की प्रधानता है | P-S तरगों का यह स्वभाव है कि अधिक घनत्व वाली चट्टानों में उनका वेग अधिक हो जाता है। महासागरीय भागों में भूकम्प मापक केन्द्रों की कमी के कारण महासागरों के नीचे स्थित विभिन्न परतों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है । फिर भी यह कहा जा सकता है कि प्रशात महासागर के तल में ग्रेनाइट परत नहीं पाई जाती है । हिन्द महासागर और अटलांटिक महासागर के नीचे ग्रेनाइट परत टुकड़ों के तथा पतली परत के रूप में उपस्थित हैं ।
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