पृथ्वी की आन्तरिक सरंचना एवं भूकम्प तरंगJagriti PathJagriti Path

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Wednesday, January 22, 2020

पृथ्वी की आन्तरिक सरंचना एवं भूकम्प तरंग

Earth inner Structur
पृथ्वी की आन्तरिक सरंचना एवं भूकम्प तरंग


पृथ्वी का ऊपरी भाग तो दृष्टिगोचर होता है तथा स्थलाकत्तियों का अध्ययन आसानी से जा सकता है । किन्तु पृथ्वी की आन्तरिक सरचना आज भी एक रहस्य है क्योकि भूगर्भ अगोचर तथा प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण से परे है । अभी तक धरातल पर तेल के लिये कुआ अधिकतम 6 किलोमीटर गहरा खोदा गया है। जबकि धरातल से पृथ्वी के केन्द्र की दूरी 5378 किलोमीटर है । इस दूरी के सामने उक्त कए की गहराई नगण्य है, जो हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान की सीमा है । यद्यपि पृथ्वी की आन्तरिक सरचना का विषय भूगर्भशास्त्री के अध्ययन क्षेत्र में आता है, किन्तु भूगोल में भी इसका अध्ययन इसलिये आवश्यक है कि पृथ्वी की स्थलाकृत्तियाँ भूगर्भिक गतिविधियों पर बहुत कुछ निर्भर करती हैं । अत : पृथ्वी की आन्तरिक सरचना के विषय में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करने के प्रयास निरन्तर किये जाते रहे हैं । इन प्रयासों के अन्तर्गत इस विषय पर प्रकाश डालने वाले कई प्रमाण जुटाये गये है । इन्हें तीन मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -
  1. निहित स्रोत (Inherent Sources)
(अ) तापमान (Temperature)
(ब) घनत्व (Density)
(स) दबाव (Pressure) 
2. आकस्मिक सचलन (Sudden Movements)
(अ) ज्वालामुखी क्रिया (Volcanic Activity)
(ब) भूकम्पविज्ञान (Seismology) 
3. उल्कापात (Meteorites)
 निहित स्रोत (Inherent Sources)

  (अ) तापमान : अनेक वैज्ञानिक तथ्यों से यह प्रमाणित हो चुका है कि भूगर्भ में गहराई के साथ-साथ तापमान बढता जाता है ! यह वृद्धि दर 10 सैल्शियस प्रति 32 मीटर है इस दर से 50 कि. मी. की गहराई पर ही तापमान 15000 सैल्शियस हो जाता है । इतने उच्च तापमान पर कोई भी पदार्थ ठोस अवस्था में नहीं रह सकता। ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाला लावा 50 किलोमीटर से कम गहराई से ही आता है । इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि पृथ्वी का आन्तरिक भाग अत्यन्त उष्ण अवस्था में है । यदि गहराई के साथ तापमान का आकलन किया जाये तो 2900 कि.मी. की गहराई पर तापमान 25000 सैल्शियस होना चाहिये । परन्तु ऐसी स्थिति में पृथ्वी का अधिकांश भाग तरल होता जो कि पूर्णतःसही नहीं है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि गहराई के साथ तापमान में तापमान वृद्धि दर कम होती जाती है ।
अत. पृथ्वी के आन्तरिक भाग में तापमान की स्थिति निम्न प्रकार से अनुमानित की गई है - 
1.दुर्बलतामण्डल (Asthenosphere) आंशिक रूप से द्रव अवस्था (molten) है | 100 कि.मी. की गहराई पर तापमान लगभग 1500 सैल्शियस है ।
2.700 कि.मी. की गहराई पर 1900 सैल्शियस तापमान की गणना की गई है । 
3.सीमा अर्थात 2900 किमी. की गहराई पर तापमान 37000 सैल्शियस आंका गया
4. भूकेन्द्र के निकट तापमान 4300 सैल्शियस अनुमानित किया गया है | पृथ्वी के आन्तरिक भाग में ऊर्जा का स्रोत मुख्य रूप से रेडियो सक्रिय पदार्थ तगुरुत्व बल का तापीय ऊर्जा में परिवर्तन है ।
 घनत्व (Density) : सम्पूर्ण पृथ्वी का औसत घनत्व 5.5 है । जबकि धरातल ऊपरी चट्टानों का घनत्व 2.7 है इस तथ्य से पता चलता है के केन्द्रीय भाग का घनत्व अधिक होगा । विशेषज्ञों द्वारा अनुमान लगाया है कि पृथ्वी के भीतरी भाग का घनत्व 11 से भी अधिक है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पृथ्वी का भीतरी भाग अत्यधिक भारी पदार्थों से, मुख्यतः धात्विक  पदार्थों से बना है । ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी का केन्द्रीय भाग या निकल -लौह -मिश्रण (Nickel iron mixture) है।
 दबाव (Pressure) : उपरोक्त बढ़ते तापमान की दर के अनुसार एक निश्चित गहराई के बाद भूगर्भ की शैलों का ठोस रूप में रहना सम्भव प्रतीत नहीं होता । किन्तु प्रमाण इसके पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि पृथ्वी एक ठोस पिण्ड की भांति व्यवहार करती है । भूगर्भशास्त्रीयों का मानना है कि गहराई की ओर ऊपरी दबाव बढता जाता है जिसके कारण शैलों का द्रवणाक भी बढ़ जाता है । अतः भूगर्भ में तापमान उच्च होते हुए भी अत्यधिक दबाव के कारण शैलें ठोस अवस्था में ही हैं । भूगर्भिक घटनाओं के फलस्वरूप चट्टानों के खिसकने के कारण दबाव कम होने से शैलें पिघल जाती हैं |इससे ज्वालामुखी -क्रिया उत्पन्न होती है । ऊपरी परतों की चट्टानें भूगर्भ की ओर दबाव डालती हैं । इस आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि आन्तरिक भाग पर पदार्थों का दबाव प्रति वर्ग सेण्टीमीटर 3,200 टन है । इस आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भूक्रोड़ की चट्टानों पर सर्वाधिक दबाव पड़ता होगा । इसी कारण वहाँ सर्वाधिक घनत्व पाया जाता है । किन्तु आधुनिक प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि है कि चट्टानों में एक सीमा के आगे उनका घनत्व नहीं बढ़ सकता. चाहे दबाव कितना ही बढ़ जाये। 

 आकस्मिक संचलन (Sudden Movements)


(अ)ज्वालामुखी क्रिया (Volcanic Activity) : ज्वालामुखी क्रिया के फलस्वरूप पृथ्वी के आन्तरिक भाग में तरल मैग्मा तथा धरातल पर तप्त तरल लावा प्रवाहित होता है । इस आधार पर कुछ भूगर्भशास्त्रियों का अनुमान है कि पृथ्वी के आन्तरिक भाग में कम से कम एक ऐसी परत है जो हमेशा द्रव अवस्था में रहती है । इसी को वे मैग्मा भण्डार (Magma Chamber) कहते हैं, जहाँ से मैग्मा के रूप में धरातल पर तप्त तरल लावा प्रकट होता है | किन्तु कई भूगर्भशास्त्री इसे व्यावहारिक नहीं मानते हैं । उनका मानना है कि ऊपरी चट्टानों के अत्यधिक दबाव के कारण कोई भी हिस्सा तरल नहीं रह सकता | संभवतः अचानक ताप बढ़ने तथा चट्टानों का दबाव घटने के कारण आन्तरिक भाग का कुछ हिस्सा पिघल जाता है और ज्वालामुखी क्रिया के द्वारा बाहर निकल आता है ।


भूकम्प विज्ञान (Seismology):

 भूकम्प विज्ञान की प्रगति ने पृथ्वी की आन्तरिक संरचना का ज्ञान प्राप्त करने में बहुत सहायता पहुँचाई है । भूकम्प विज्ञान में भूकम्प की तरंगों और उनकी गतियों का अध्ययन किया जाता है । भूकम्पीय तरंगों का सिद्धान्त यह है कि उनकी गति हल्के घनत्व के माध्यम में धीमी और अधिक घनत्व के माध्यम में तेज होती है । अर्थात् माध्यम का घनत्व जितना ही अधिक होगा, तरंगों की गति भी उतनी ही अधिक होगी । इस गुण के कारण भूकम्पीय तरंगों के विश्लेषण से हमें अनेक जानकारियाँ मिलती हैं । भूकम्प मूल (Focus) से तीन प्रकार की तरंगें चलती हैं ।
पृथ्वी की आन्तरिक सरंचना एवं भूकम्प तरंग
पृथ्वी की आन्तरिक सरंचना एवं भूकम्प तरंग



1. प्राथमिक | अनुदैर्ध्य । सम्पीडनात्मक तरंगें (Primary / Longitudinal Compressional Waves) : 

इन्हें P - तरंगें (P-Waves) भी कहते हैं । इनका संचरण वेग सबसे अधिक अर्थात 8 से 10 किलोमीटर प्रति सेकेण्ड तक होता है । ये भूकम्प मूल से प्रारम्भ होकर पृथ्वी के ठोस, और गैसीय सभी प्रकार पदार्थों को पार करती हुई भूपृष्ठ पर सबसे पहले पहुँचती हैं । ये तरंगें शैलों  सम्पीडन के कारण उत्पन्न होती हैं । इन तरंगों के शैलों में से गुजरने पर शैल कणों में कम्पनी (Vibration) होता है । यह कम्पन तरंगों की दिशा में आगे- पीछे होता है आगे - पीछे होने कारण इसे, धक्के की तरंगें या क्षतिजीय तरंगें (Push Waves or Longitudinal waves) भी कहते हैं । ये ठोस भाग में
अत्यधिक तेजी से सरल रेखा में चलती । इनकी ध्वनि तरंगों के समान होती है |

 (2) द्वितीयक | आड़ी । गौण तरंगें (Secondary | Transverse I Distortional Waves) : 

इन्हें S-तरंगों (S-Waves) के नाम से भी जाना जाता है  ये जल तरंगों प्रकाश तरंगों के समान व्यवहार करती हैं क्योंकि इनमें कणों की गति तरंग की दिशा के समकोण पर है । इनकी उत्पत्ति शैलों पर पड़ने वाले अपरूपण बल (Shear Force) के कारण होती है। इनकी गति लगभग पाँच किलोमीटर प्रति सैकण होती है। ये सिर्फ ठोस माध्यम से ही गुजर सकती हैं । ये तरल अथवा गैसीय पदार्थ से होकर नहीं गुजर सकती। ये तर, भूकम्प मूल -S- तरंगों की दिशाएँ चित्र -2.5. S. लरंगों में शैत कणों की गति से 1030 से 1430 के कोण के मध्य धरातल पर नहीं पहुंच पाती । इसे S - तरंगों का छाया क्षेत्र कहते हैं । इस कारण भूगर्भशास्त्री अनुमान लगाते हैं कि भू-क्रोड का कुछ भाग द्रव अवस्था में होना चाहिये, जहां से इन तरंगों के मार्ग में परावर्तन के कारण यह छाया क्षेत्र बनता है। शैल कणों में तरंगों की दिशा से लम्बवत गति होने के कारण इनसे भूकम्प प्रभावित क्षेत्र में अधिक क्षति होती है । धीमी गति के कारण भूपृष्ठ पर ये तरंगें P तरगों की अपेक्षा कुछ देर से पहुँचती हैं ।

  (3) धरातलीय । दीर्घ पृष्ठीय तरंगें ( Long Surface Waves) :

 इन्हें Lतरंगे (L-Waves) भी कहते हैं । धरातल पर चलने के कारण इन्हें धरातलीय तरंगें कहते है । इनका संचरण वेग सबसे कम अर्थात लगभग 3 किलोमीटर प्रति सैकेण्ड लगभग होता है। ये भूकम्प अधिकेन्द्र (Epicentre) से उत्पन्न होकर धरातल पर ही चलती हैं । ये तरंगें ऊँची - नीची पूरी सतह को पार करती है, अत: धरातल पर ये तरंगें सबसे लम्बा मार्ग तय करती हैं । इसलिये इन्हें दीर्घपृष्ठीय तरंगें (Long Surface waves) भी कहते हैं । ये अत्यधिक प्रभावशाली तरंगें होती हैं । धरातल पर इनका प्रभाव काफी अधिक होता है।
यदि भूगर्भ की संरचना एक समान होती तो भूकम्पीय तरंगों का संचरण वेग और मार्ग सभी स्थानों पर समान व सीधा होता । किन्तु इनके अध्ययन से पता चलता है कि वास्तव में ऐसा नहीं है।
भूकम्पीय तरंगों से पृथ्वी के आन्तरिक भाग की निम्नलिखित विशेषताएँ उभरती हैं - 
1. भूकम्पमूल से गहराई की ओर चलकर अधिकेन्द्र तक पहुँचने वाली तरंगें लम्बी दूरी के  बावजूद अपेक्षाकृत कम समय लेती हैं । इससे सिद्ध होता है कि गहराई की ओर शैलों के घनत्व में वृद्धि होती जाती है । 2. यदि भूगर्भ में शैल संरचना समान होती तो भूकम्पीय तरंगों का मार्ग सीधा होता | किन्तु वास्तव में भूकेन्द्र की ओर इनके मार्ग उत्तल हो जाते हैं अथवा मुड़ जाते हैं | इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि भूगर्भ में विभिन्न संरचनाओं की परतें पाई जाती हैं तथा इनमें कुछ परतें द्रव अथवा अर्द्ध-द्रव अवस्था में हो सकती हैं ।

उल्कापात (Meteorites)
उल्कापात से हम सभी परिचित हैं । उत्कापिण्ड (metorites) सौर्य परिवार के ही भाग हैं, जो ग्रहों की उत्पत्ति के समय अलग होकर अन्तरिक्ष में फैल गये थे । उल्काओं की रचना में निकल और लोहा पाया जाता है। सौर परिवार की सदस्य पृथ्वी में भी चुम्बकत्व का गुण पाया जाता है।

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