भौतिक भूगोल- पृथ्वी की उत्पत्तिJagriti PathJagriti Path

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Tuesday, January 21, 2020

भौतिक भूगोल- पृथ्वी की उत्पत्ति

 
Earth and universe
पृथ्वी की उत्पत्ति

ब्रह्माण्ड अत्यन्त रहस्यमय है जिसके विषय में जानने के लिए मानवीय विज्ञान होना स्वाभाविक है। इनकी अनेक विशेषताएँ है। ब्रह्माण्ड असीमित व अपरिमित है। इसमें तारे, नक्षत्र, ग्रह, सौर्य परिवार, आकाशगंगाएं आदि हैं। इनमे से हमारा एक सौर्य परिवार भी है, जैसे की चित्र में दर्शाया गया है। ये सभी ग्रह अपने उपग्रह के साथ सूर्य की परिक्रमा करते है। सौर्य परिवार के कई सरचनात्मक गुण यह इंगित करते है की इस परिवार में सम्मिलित सभी ग्रहों की उत्पत्ति एक ही समय एवं समान पदार्थों से हुई है। अत: सौर्य परिवार की सम्बन्धी परिकल्पनाएँ पृथ्वी की उत्पत्ति के संदर्भ में लागू होती है। सौर्य परिवार की उत्पत्ति किन विषय में समय-समय पर कई परिकल्पनाएँ प्रस्तुत की गई । इनमें से कोई भी परिकल्पना सर्वमान्य नहीं है। इनके विषय में विस्तृत विवरण किये जाने से पूर्व सौर्यमण्डल की कुछ विशेषताओं की जानकारी होनी चाहिए, जो निम्नानुसार है 
1. सभी ग्रह भिन्न - भिन्न आकार के है। किन्तु इनमें एक आश्चर्यजनक व्यवस्था भी देखने को मिलती है । मध्यस्थ ग्रहों का आकार सबसे बड़ा तथा दोनों ओर उनका आकार छोटा हो जाता है। खगोल विधि ग्रहों के आकार की इस व्यवस्था को 'सिगार आकृति' कहते है। 
2. हमारे सौर्य परिवार के ग्रहों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। प्रथम वर्ग में आन्तरिक ग्रह (Inner or Terrestrial Planets) आते है। चित्र देखिये, इस वर्ग में बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल और क्षुद्र ग्रह आते हैं । ये ग्रह अपेक्षाकृत छोटे हैं । इनका घनत्व भी अधिक है । इनकी परिभ्रमण गति कम है । इनके कोई उपग्रह नहीं हैं अथवा बहुत कम उपग्रह हैं, जैसे पृथ्वी के एक व मंगल के दो उपग्रह हैं । द्वितीय वर्ग में बाहा ग्रह (outer Planets) आते हैं । इस वर्ग में बृहस्पति, शनि, अरुण, वरुण व यम सम्मिलित हैं । आंतरिक ग्रहों की अपेक्षा बाह्य ग्रहों का आकार बड़ा है । इनका घनत्व कम है । इनकी परिभ्रमण गति अधिक है। इनके उपग्रह भी अधिक हैं।
3. सभी ग्रहों के अक्ष (Axis) अपने कक्ष तल (Orbital Plane) पर झुक हुए हैं।
विभिन्न ग्रहों के अक्षों का अपने कक्ष-तल पर झुकाव भिन्न-भिन्न है |
4.सभी ग्रह अपने इन अक्षों पर परिभ्रमण (Rotation) करते हैं । इस गति को घूर्णन भी ।कहते हैं । सभी ग्रहों व उपग्रहों की परिभ्रमण गति भिन्न भिन्न है । 5. सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा घड़ी की सूई के प्रतिकूल दिशा में करते हैं । 6. सभी ग्रहों के पथ लगभग वृत्ताकार अथवा दीर्घवृताकार (Elliptical) हैं । 7. आकार व द्रव्यमान (Mass) की दृष्टि से सभी ग्रह सूर्य की तुलना में बहुत छोटे हैं । सौर्य परिवार के कुल द्रव्यमान का लगभग 98 प्रतिशत भाग सूर्य में केन्द्रित है । 8. सौर्य परिवार में कोणीय संवेग (Angular Momentum) का वितरण विशेष प्रकार का है।
यांत्रिकी (Mechanics) में किसी पिण्ड का कोणीय संवेग उसके द्रव्यमान व वेग (Velocity) का प्रतिफल (द्रव्यमान x वेग = mv) होता है । किसी केन्द्र की परिक्रमा करते हुए पिण्ड का कोणीय संवेग उसके द्रव्यमान, वेग व उसकी कक्षा (Orbit) के अर्द्ध व्यास के प्रतिफल (अर्थात mvR) के बराबर होता है । कोणीय संवेग के सर क्षण सिद्धान्त के अनुसार अन्तरिक्ष में किसी एकाकी तंत्र में कुल कोणीय संवेग समान रहता है । किन्तु सौर्य परिवार में कोणीय संवेग का वितरण समान नहीं है।सूर्य व अन्य ग्रहों के कोणीय संवेग की तुलना में सूर्य केवल1.7 प्रतिशत भाग ही सूर्य में समाविष्ट है | शेष 98.3 प्रतिशत भाग सौर्य परिवार के ग्रहों में केन्द्रित है । इसके विपरीत सौर्य परिवार के कुल द्रव्यमान का 98 प्रतिशत भाग सूर्य में केन्द्रित है।



पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी परिकल्पनाओं का परिचय


(Introduction of Hypotheses of the Origin of Earth) पथ्वी की उत्पत्ति के विषय में अभी तक कोई सर्वसम्मत सिद्धान्त नहीं है । यह विषय अभी तक रहस्यमय बना हुआ है । इसलिये इस विषय में अनेक परिकल्पनाएँ दी गई हैं । उपयुक्त विशेषतायें ही सौर्य परिवार की उत्पत्ति के विषय में दी गई परिकल्पनाओं का आधार है | अतः इन्हीं विशेषताओं के परिकल्पनाओं में परिकल्पनाओं के गुण-दोषों की समीक्षा की जाती है । इन परिकल्पनाओं को तीन मुख्य वर्गों में बांटा जा सकता है - 1. एक तारक परिकल्पनाएँ (One Star hypotheses) | 2. दवैतारक परिकल्पनाएँ (Binary hypotheses) | 3.  नवीन परिकल्पनाएं (Modern hypotheses) 

 एक तारक परिकल्पना

जिन परिकल्पनाओं में सौर्य परिवार की उत्पत्ति एक तारे से मानी जाती है, उन्हें एक तारक परिकल्पनाएँ कहा जाता है । इन परिकल्पनाओं के अनुसार सौर्य परिवार की उत्पत्ति एक क्रमिक विकास प्रक्रिया (Gradual evolutionary process) का परिणाम है । काण्ट, लाप्लास, रोशे, लॉकियर आदि विद्वानों की परिकल्पनाएँ इस वर्ग में सम्मिलित की जाती हैं |
काण्ट की वायव्य-राशि परिकल्पना (Gaseous Hypothesis of Kant) काण्ट ने सन् 1755 में पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी परिकल्पना का प्रतिपादन किया | काण्ट के अनुसार प्रारम्भ में असंख्य आद्य पदार्थ (Primordial matter) के कण ब्रह्माण्ड में फैले हुए थे । ये सभी आद्य कण गुरुत्वाकर्षण के कारण आपस में टकराने लगे । इन कणों के टकराने से ताप उत्पन्न हुआ | ताप से द्रव तथा द्रव से ये कण गैसीय अवस्था में परिवर्तित हो गये । गैसीय पुंज केन्द्रित हो जाने पर परिभ्रमण करने लगा | अधिकाधिक आद्य कणों के एकत्रित होते रहने से इस पुंज का आकार बढ़ता गया | उनकी मान्यता थी कि गैसीय पुंज का आकार बढ़ने के साथ -साथ उसकी परिभ्रमण गति में वृद्धि होने लगी । परिणामस्वरूप एक स्थिति यह आई कि परिभ्रमण गति बढ़ जाने से गुरुत्वाकर्षण बल (Gravitational force) की अपेक्षा अपकेन्द्रीय बल अधिक बढ़ गया । इस बल के अधिक बढ़ने से गैसीय पुंज के मध्यवर्ती भाग में उभार पैदा होने लगा | उभार के बढ़ते जाने से एक-एक करके छल्ले बनने लगे| इस प्रक्रिया में नौ गोलाकार छल्ले बने जो कि निहारिका (Nebula) के रूप में अलग हो गये । इससे नौ ग्रह तथा इसी प्रक्रिया की पुनरावृत्ति से इनके उपग्रह बने और जो अवशिष्ट बचा वह सूर्य बना। इस प्रकार सौर्य परिवार की रचना हुई। इसलिये काण्ट ने कहा था - "मुझे पदार्थ दो, मैं पृथ्वी की उत्पत्ति कर दिखलाऊंगा।" (Give me matter, and | will show you how to make a word of it)




लाप्लास की निहारिका परिकल्पना (Nebular Hypothesis of Laplace)


लाप्लास से पूर्व काण्ट ने निहारिका परिकल्पना (Nebular Hypothesis) दी थी । लाप्लास ने काण्ट की परिकल्पना के संशोधित रूप को अपने विचारों का आधार बनाया । लाप्लास (Laplace) फ्रांसीसी ज्योतिष थे । उन्होंने अपनी पुस्तक विश्व व्यवस्था की व्याख्या (Exposition of the World System) के माध्यम से सर 1796 में सौर्य परिवार की उत्पत्ति के विषय में अपनी परिकल्पना प्रतिपादित की । उन्होंने सौर्य परिवार की उत्पत्ति की प्रक्रिया के प्रारम्भिक चरण में परिभमण करती हुई एक अत्यन्त उष्ण एवं गैसीय राशि अथवा निहारिका की कल्पना की थी। उन्होंने अपनी परिकल्पना में निहारिका की उत्पत्ति के विषय में कुछ भी नहीं कहा । लाप्लास ने काण्ट की परिकल्पना के इस अंश को हटा दिया कि आद्य पदार्थों की टकराहट से उनमें ताप व गति उत्पन्न हई। इस संशोधन से लाप्लास ने अपना परिकल्पना को कोणीय संवेग के संरक्षण सिद्धान्त सम्बन्धी आलोचना से बचा लिया ।

लाप्लास के अनुसार यह उष्ण एवं गैसीय निहारिका सूर्य के केन्द्र से वरूण के परिक्रमण मार्ग से भी काफी अधिक विस्तृत थी । गुरुत्वाकर्षण एवं ताप हास के कारण यह निहारिका सिकुड़ने लगी जिससे इसके व्यास में कमी होती गई । व्यास में कमी होते जाने के कारण परिभ्रमण गति एवं अपकेन्द्रीय बल में वृद्धि होने लगी । एक स्थिति ऐसी आई कि भूमध्यरेखीय उभार (Equatorial Bulge) में गुरुत्वाकर्षण व अपकेन्द्रीय बल बराबर हो जाने से भारहीनता हो गई। परिणामस्वरूप सिकुड़ती हुई निहारिका के भारहीन भमध्यरेखीय उभार से क्रमशः एक के बाद एक वलय पृथक होती गई  । इन वलयों के ठंडा होने से ग्रहों का निर्माण हुआ । वलय के ठंडा होने से पूर्व उनसे उप-वलय भी इसी प्रक्रिया के द्वारा अलग हुई जिनके ठंडा होने से उपग्रहों का निर्माण हुआ । निहारिका का शेष भाग सूर्य के रूप में विद्यमान रह गया है । इससे यह तथ्य स्पष्ट होता है कि लाप्लास ने सूर्य सहित सौर्य मण्डल के सभी ग्रहो की उत्पत्ति एक ही पदार्थ से मानी थी । इस परिकल्पना में कई विशेषतायें हैं | शनि ग्रह के चारों ओर पाई जाने वाली इस परिकल्पना की पुष्टि का एक सशक्त प्रमाण है । इसके अतिरिक्त अन्तरिक्ष में कई निहारिकाएँ विदयमान हैं जो लाप्लास के मत की पुष्टि करती हैं । परिक्रमणशील पिण्ड के व्यास में कमी होने से उसकी परिभ्रमण गति में वृद्धि होती है । लाप्लास का यह मत गति विज्ञान के नियमों के अनुकूल है। सब ग्रहों की रचना में एक जैसा तत्वों की उपस्थिति भी लाप्लास की परिकल्पना को सही प्रमाणित करती है लाप्लास के अनुसार सभी ग्रह गैसीय वलय के ठण्डा होने से बने हैं । इनका ऊपरी भाग तो ठोस हो गया किन्तु भीतरी भाग अब भी तरल अवस्था में है ।
लाप्लास के अनुसार भीतरी भाग अब वलयो का पृथक होना ज्वालामुखी उद्गार से निकलने वाले तरल लावा से भी लाप्लास की परिकल्पना की पुष्टि होती है। इन गुणों के कारण लाप्लास की परिकल्पना एक शताब्दी से अधिक अवधि तक मान्य रही । सांख्यिकी, भौतिकी, खगोल भौतिकी एवं ऊष्मा गतिकी आदि विज्ञानों के विकास के साथ-साथ लाप्लास की परिकल्पना में कई कमियाँ उजागर होने लगी जिनके आधार पर इस परिकल्पना की निम्नानुसार आलोचनाएँ की गईं । आलोचना 1. यद्यपि लाप्लास ने अपनी परिकल्पना को गतिक विज्ञान सम्बन्धी आलोचनाओं से तो बचा
लिया, किन्तु उन्होंने उष्ण व गतिशील निहारिका की उत्पत्ति के विषय में कुछ नहीं बताया। यह उनकी परिकल्पना की कमजोरी है । 2. लाप्लास की परिकल्पना में यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि निहारिका से केवल नौ वलय ही क्यों पृथक हुई। इससे कम या अधिक क्यों नहीं? 3. मोल्टन (Moulton) के मतानुसार वलयों के ठण्डा होने से ग्रह जैसे पिण्ड बनना सम्भव नहीं है । उन्होंने बताया कि ऊष्मा गतिकी के नियमों के अनुसार ऐसी स्थिति में ग्रहों के वर्तमान स्वरूप से भिन्न अपेक्षाकृत छोटे ग्रह बनेंगे ।


 दवैतारक परिकल्पनाएँ (Binary Hypotheses) 

 सौर्य परिवार की उत्पत्ति मानने वाली परिकल्पनाओं को दवैतारक परिकल्पनाएँ कहा जाता है । इस वर्ग की अधिकांश परिकल्पनाओं का प्रतिपादन बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ
 समय तक काफी नये तथ्यों की जानकारी हो चुकी थी | जेम्स जीन्स, चैम्बरलिन - नान, वाइज़कर, जैफ्रीज. रसैल आदि वैज्ञानिकों की परिकल्पनाएँ इस वर्ग  सम्मिलित की जाती हैं ।

जेम्स जीन्स की ज्वारीय परिकल्पना (Tidal Hypothesis of James Jeans)

जेम्स जीन्स ने सौर्य परिवार की उत्पत्ति के सम्बन्ध
परिवार की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ज्वारीय परिकल्पना सन् 1919 में प्रतिपादित की थी। उनके अनुसार सूर्य अपने वर्तमान आकार अनुसार सूर्य अपने वर्तमान आकार से काफी बड़ा गैस का गोला था। सूर्य से भी कई गुना बड़ा एक तारा अपने पथ पर चलता हुआ सूर्य क निकट तारा अपने पथ पर चलता हुआ सूर्य के निकट से गुजरा । जैसे जैसे यह तारा निकट आने लगा, सूर्य के बाह्य भाग में ज्वार उठने लगा,  इस तारे के सूर्य के निकटतम आने तक यह ज्वार प्रबल हो गया । सिगार के आकार का पर करोड़ों किलोमीटर लम्बाई में विस्तृत था । भ्रमणशील तारे के निकटस्थ आने पर यह फिलामेंट सूर्य से अलग हो गया।
किन्तु तब तक यह तारा अपने पथ पर आगे बढ चका था  अत : यह फिलामैण्ट न तो तारे के साथ जा सका और न ही पुनः । सूर्य से मिल सका | गुरुत्वाकर्षण प्रभाव में यह फिलामैण्ट सर्य की परिक्रमा करने लगा | फिलामैण्ट की द्रव्य राशि में गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से एवं घनीभत होने से गाँठे या ग्रन्थियाँ पड़ने लगी । ग्रंथिल फिलामैण्ट ही घनीभूत होकर विभिन्न ग्रहों में परिणित हो गया । ज्वारीय प्रभाव से निसृत फिलामैण्ट दोनों सिरों पर संकरा एवं बीच में अधिक फैला हुआ था । इसलिए इस फिलामैण्ट के घनीभूत होने से बनने वाले ग्रह भी दोनों सिरों पर छोटे एवं मध्य में बड़े आकार के बने। ठीक उसी प्रकार सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण ग्रहों से

उपग्रह बने । ग्रहों की द्रव्य राशि पर सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण जो लघु ज्वारीय फिलामेण्ट उत्पन्न हुए उनसे उपग्रहों की उत्पत्ति हुई। जिन ग्रहों के दो से अधिक उपग्रह है, उनमें भी मध्यस्थ उपग्रह बड़े एवं दोनों सिरों की ओर छोटे उपग्रह स्थित हैं । इस परिकल्पना में कई विशेषताएँ हैं, जिनके कारण यह परिकल्पना काफी लम्बे समय तक मान्य रही
1. सौर्य परिवार के ग्रहों को एक रेखा में व्यवस्थित किया जाये तो बड़े ग्रह मध्य भाग में एवं दोनों सिरों पर छोटे ग्रह स्थित हैं | ग्रह -व्यवस्था की इस सिगार जैसी आकृति के कारण इस परिकल्पना की पुष्टि होती है । 2. जेम्स जीन्स की ज्वारीय परिकल्पना की दूसरी विशेषता यह है कि ग्रहों की भाँति उपग्रहों की भी सिगार जैसी वितरण व्यवस्था इसकी पुष्टि करती है । 3. छोटे ग्रहों को ठंडा होने में अपेक्षाकृत कम समय लगा | अत: इनके या तो उपग्रह नहीं हैं या बहुत कम हैं । इसके विपरीत बड़े ग्रह अधिक लम्बे समय तक गर्म रहे । इसलिए उनके उपग्रह अधिक संख्या में हैं । यह इस परिकल्पना की तीसरी विशेषता है। 4. इस परिकल्पना में सभी ग्रहों की उत्पत्ति सूर्य से निःसृत फिलामैण्ट से होने की कल्पना की गई है । इस एतथ्य की पुष्टि सभी ग्रहों की संरचना में समान पदार्थ के योगदान से होती है । अत: यह इस परिकल्पना की चौथी विशेषता है । 5. यह परिकल्पना इस तथ्य का तर्कसंगत स्पष्टीकरण देने में समर्थ है कि सभी ग्रह समकालीन हैं । इस परिकल्पना के अनुसार सभी ग्रहों का निर्माण सूर्य से अलग हुए फिलामैण्ट से एक साथ ही हुआ था | यह इस परिकल्पना की पाँचवीं विशेषता है | 


 चैम्बरलिन व मोल्टन की गहाण परिकल्पना (Planetesimal Hypothesis of Chamberlin and Moulton)


कल्पना के अनुसार ग्रहों की उत्पत्ति ग्रहाणुओं से हुई है । चैम्बरलिन की मान्यता थी कि ब्रह्माण्ड में प्रारम्भ में दो विशाल तारे थे. एक सर्य और दूसरा साथी विशाल तारा | आरम्भ में सूर्य का आकार  वर्तमान सूर्य से बहुत बड़ा था तथा इसका एक साथी तारा (Star) भी था ।
 साथी तारा अपने विशाल पथ पर घूम रहा था । घूमते -घूमते जब वह सूर्य के अधिक समीप पहुंच गया तब विशाल तारे की आकर्षण शक्ति के कारण सूर्य के धरातल से बहुत सा पदाय छोटे-छोटे कणों के रूप में उस विशाल तारे की ओर खिंच गया । इसी पदार्थ को उन्होंने ग्रहाणु कहा । सूर्य के धरातल से निकला पदार्थ घूमते हुए तारे में नहीं मिल सका क्याक जब 'पदार्थ निकला तब तक तारा अपने पथ पर आगे बढ़ गया, और यह पदार्थ तारे की गुरुत्वाकर्षण शक्ति की सीमा से दर रह गया । इस स्थिति में ये ग्रहाणु सूर्य की परिक्रमा करने लन । य ग्रहाणु छोटे -बड़े सभी आकार के थे । बड़े ग्रहाणओं ने केन्द्रक (Nucleus) का काम किया और छोटे ग्रहाणुओं को अपनी ओर आकर्षित कर लिया । धीरे - धीरे बड़े ग्रहाणुओं का आकार बढ़ता गया और वे ग्रहों के रूप में निर्मित हो गए |


वाइजैकर की परिकल्पना (Weitzacker's Hypothesis)


जर्मन वैज्ञानिक वाइजैकर ने सौर्यमण्डल की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सर 1943 में एक नवीन परिकल्पना प्रतिपादित की । वाइजेकर के अनुसार सौर्यमण्डल की उत्पत्ति अन्तरिक्ष में फैले हुए गैस एवं धूल के बारीक कणों के घनीभूत होने से हुई है । अन्तरिक्ष में आज भी ऐसी कई निहारिकाएँ पायी जाती हैं जो गैस व धूल के बादल जैसी लगती हैं । वाइज़ैकर के अनुसार किसी समय सूर्य एक निहारिका रूपी बादल में प्रविष्ट हो गया । ये निहारिकाएं अत्यधिक विस्तीर्ण होती हैं जिनसे इनमें सूर्य का प्रवेश होना सम्भव है । कालान्तर में सूर्य के गुरुत्वाकर्षण के कारण विसरित निहारिका का गैसीय पदार्थ सूर्य के चारों और फैल गया (चित्र संख्या- 1.8) | यह पदार्थ कुल ग्रहों के द्रव्यमान से सौ गुना अधिक था । सूर्य के साथ यह पदार्थ भी तीव्र गति से घूमने लगा इस अवधि में धूल के कण घनीभूत होते रहे जिससे पिण्डों का निर्माण हुआ । यह कार्य लगभग 10 करोड़ वर्षों तक जारी रहा तथा इनसे ग्रहों एवं उपग्रहों का निर्माण हुआ ।


 रसैल की द्वैतारक परिकल्पना (Binary Star Hypothesis of Russel) 

रसैल ने युग्म -तारा परिकल्पना का प्रतिपादन किया । ब्रह्माण्ड में विद्यमान अनेक युग्म तारे इस परिकल्पना की पुष्टि करते हैं | बहुत पहले सूर्य का एक साथी तारा था जो सूर्य के चारों ओर परिक्रमा कर रहा था । कुछ समय पश्चात एक विशालकाय तारा सूर्य के साथी तारे के समीप आया, जिसके कारण साथी -तारे में विशाल ज्वार उठा। रसैल की मान्यता थी कि ज्वार उठने के लिये सूर्य के साथी तारे तथा यात्री तारे के मध्य लगभग 45 से 65 लाख किमी. की दूरी रही होगी । साथी तारे से उठा हुआ ज्वारीय पदार्थ सूर्य के गुरुत्वाकर्षण में आकर उसकी परिक्रमा करने लगा | इस पदार्थ के घनीभवन से ही ग्रह बने । इन ग्रहों के पारस्परिक गुरुत्वाकर्षण के कारण ग्रहों से पदार्थ निकलकर उनके उपग्रह बन गये होंगे । इस तरह युग्म तारे की कल्पना करके तथा सूर्य के स्थान पर साथी तारे से पदार्थ निसृत कराकर ग्रहों तथा पृथ्वी की उत्पत्ति मानकर रसैल ने सूर्य तथा ग्रहों के बीच की वर्तमान दूरी तथा उनके कोणीय संवेग का वैज्ञानिक स्तर पर समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया । 
आलोचना 1. रसैल ने साथी तारे से निकले पदार्थ से ग्रहों की उत्पत्ति की कल्पना की थी, किन्त इसका स्पष्टीकरण नहीं दिया कि सूर्य के साथी तारे के अवशिष्ट भाग का क्या हुआ? 2. उन्होंने यह भी नहीं बताया कि विशालकाय तारे के अपने पथ पर आने जाने पर सभी सूर्य की परिक्रमा क्यों करने लग गये?

नवीन परिकल्पनाएँ (New Hypotheses)

 पिछली शताब्दी में तीसरे दशक के बाद सौर्य परिवार की उत्पत्ति के बारे में नवीन तथ्यों पर आधारित कई परिकल्पनाएँ प्रतिपादित की गई ।

ऑल्फवैन की विद्युत चुम्बकीय परिकल्पना (Electro-Magnetic Theory of Alfven)


ऑल्फवैन ने सर 1942 में विद्युत चुम्बकीय शक्ति के दवारा सौर्य परिवार की उत्पत्ति को समझाया । ऑल्फबैन के अनुसार सूर्य का यह चम्बकीय क्षेत्र आदिकाल में वर्तमान की अपेक्षा कई हजार गुना अधिक रहा होगा । ऑल्फवैन की धारणा है कि सूर्य पहले बड़ी तेजी से परिभ्रमण कर रहा था । तीव्र गति से परिभ्रमण करता हुआ सूर्य परमाणुओं के एक मेघ में जा पहुँचा । इस मेघ के अणु विद्युत की दृष्टि से तटस्थ थे । ये अणु सूर्य के चुम्बकीय प्रभाव में आकर सूर्य की परिक्रमा करने लगे । इस मेघ का विस्तार वर्तमान समस्त ग्रहों के कुल फैलाव के बराबर था । अणुओं के परस्पर टकराने से ये आयनीकृत हो गये । इसलिए सूर्य उनका अपहरण नहीं कर सका । इन अणुओं के एकत्रित होने से विभिन्न ग्रह व उपग्रह बने । इस परिकल्पना में भी अनेक कमियाँ हैं ।

ऑटो श्मिड की अन्तर -तारक धूलि परिकल्पना (Otto Schmidt's Inter Sternal Dust Hypothesis)


रूसी वैज्ञानिक ऑटो श्मिड ने सर 1943 में अपनी अन्तर -तारक धूलि परिकल्पना प्रतिपादित हो। उनके मतानुसार ब्रह्माण्ड में गैस एवं धूलि कणों के बादल इधर -उधर बिखर ऑटो श्मिड ने इन्हीं से सौर्य परिवार के ग्रहों की उत्पत्ति की कल्पना की है । गैस व धूलि कणों के विषय में उन्होंने बताया कि इनकी उत्पत्ति तारों से निसत परमाणुओं के घनीभूत होने से हुई है । ऑटो श्मिड की मान्यता है कि पहले से मौजूद सूर्य ने ऐसे ही एक गैसीय एव धूलिकणों के पुंज को अपनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति दवारा आकर्षित कर लिया । इस पुंज से धीरेधीरे ग्रहों का निर्माण हुआ ।
ऑटो श्मिड के सहयोगी वैज्ञानिक लेविन ने ग्रहों की निर्माण प्रक्रिया में तीन प्रेरक कारक बताये हैं । ये तीन कारक हैं - गुरुत्वाकर्षण शक्ति, यान्त्रिक या भौतिक ऊर्जा (Mechanical Energy) का ऊष्मा (Heat) में परिवर्तन एवं भौतिक रासायनिक शक्तियाँ (PhysicoChemical) । ऑटोश्मिड के अनुसार प्रारम्भ में भ्रमणशील पुज में उपलब्ध गैस एवं धूलिकण अत्यन्त अव्यवस्थित रूप से सूर्य की परिक्रमा कर रहे थे । पुज के चपटा होने के साथ -साय इन कणों के परिक्रमण मार्ग अधिक व्यवस्थित एवं भूमध्य रेखीय तल के समानान्तर होने लगे। गुरुत्वाकर्षण शक्ति के प्रभाव में यह पुंज अपने भूमध्य रेखीय तल की ओर चपटा तश्तरीनुमा भी होने लगा था । गैस एवं धूलिकणों के बादल में धूलिकणों की मात्रा अधिक होती थी | भारी होने के कारण धूलिकण भूमध्यरेखीय तल की ओर अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में एकत्रित होते गये एवं घनीभूत होकर एक विशाल चपटी तश्तरी का रूप ले लिया । पुँज के चपटा हो जाने से उसमें उपलब्ध गैस व धूलिकणों की पारस्परिक दूरियाँ कम होती गई जिससे उनमें टकराहट होने लगी । गैस के कणों की टकराहट प्रत्यास्थ (Elastic) होती है । इससे उनकी गति मन्द नहीं होने पाती है तथा वे धीमी गति से घनीभूत होते हैं । इसके विपरीत धूलिकणों की टकराहट अप्रत्यास्थ (Non-elastic) होती है । धूलिकणों के घनीभूत होने से उनका एकत्रण होने लगा । ये प्रारम्भिक एकत्रण ग्रहों के भ्रूण सिद्ध हुए | परिपक्व होते -होते ये भ्रूण क्षुद्रग्रह) (Asteroids) के रूप में विकसित होते गये । सूर्य की परिक्रमा करते हुए ये क्षुद्रग्रह अन्य छोटे पिण्डों व कणों को आत्मसात करते रहे । इस प्रकार धीरे – धीरे उन्होंने वर्तमान ग्रहों का रूप ले लिया । ग्रह निर्माण की प्रक्रिया के उपरान्त भी गैस व धूलिकणों के पुंज का काफी पदार्थ अपरिपक्व अवस्था में बचा था | ये पदार्थ भी कालान्तर में घनीभूत होकर उपग्रह के रूप में अपने निकटस्थ ग्रह की परिक्रमा करने लगे । इस प्रकार विभिन्न उपग्रहों का निर्माण हुआ।

 होयल व लिटिलटन की नवतारा परिकल्पना (Nova Hypothesis)


कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय  के दो गणितज्ञों - फ्रैड होयल (F.Hoyle) तथा लिटिलटन (Lyttleton)ने अपनी परिकल्पना का प्रतिपादन 1939 में किया । उनकी परिकल्पना परमाणु भौतिकी (Nuclear Physics) से संबंधित है। ग्रहों के निर्माण में अधिकांश भारी तत्त्वों heavy elements) का योगदान है। इनकी मात्रा गहों में 98 प्रतिशत से अधिक है, किन्तु तारा के निर्माण में मुख्य तत्व हाइड्रोजन है । इसकी माग ग्रहों में 1 प्रतिशत से भी कम है । होयल और लिटिलटन ने बताया कि हाइडोजन के जलने से भी भारी तत्वों की उत्पत्ति हो किन्तु सूर्य जैसे साधारण तारे दवारा हाइडोजन से केवल हीलियम की उत्पत्ति सम्भव हा है | भारी तत्वों के निर्माण के लिये हाइडोजन के जलने की क्रिया अधिक ऊँचे तापम होना आवश्यक है । अधिक ऊँचा तापमान केवल अधिनव (Supernova) तारा म है । कोई तारा तभी अधिनवतारा बनता है जब उसमें जलने योग्य आवश्यक हाइड्रोजन नहीं बचता । ऊष्मा और ऊर्जा का स्रोत हाइड्रोजन ही है । हाइड्रोजन हीलियम में परिणित होकर ऊष्मा और ऊर्जा उत्पन्न करता है । हाइड्रोजन की कमी हो जाने पर पर्याप्त मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए तारे को संकुचित होना पड़ता है । संकुचन के कारण तारे की घूर्णन - गति बहुत बढ़ जाती है | तीव्र घूर्णन से अपकेन्द्रीय बल बढ़ता है जिस कारण प्रारम्भ में तारे का बाहरी हल्का पदार्थ और बाद में भारी तत्व बाहर फेंके जाते हैं । ब्रह्माण्ड में भारी तत्वों की उत्पत्ति इसी अवस्था के अन्तर्गत सम्भव है । भारी पदार्थ दूर फेंक दिये जाने के पश्चात केन्द्र में दिव्य ज्योति दिखाई पड़ती है जो कि सूर्य से कई लाख गुनी अधिक होती है । इतनी ज्योति वाले तारों को नवतारा (Nova) नाम दिया गया है। होयल व लिटिलटन के अनुसार ग्रहों की रचना एक अधिनव तारे में विस्फोट के कारण हुई है । उनके अनुसार युग्म तारों में से एक तारा सूर्य और दूसरा अधिनव तारा था । दोनों तारों में मध्य दूरी सूर्य और बृहस्पति की दूरी के बराबर थी।
 बैनर्जी की सैफीड परिकल्पना -ब्रह्माण्ड में डेल्टा सैफी (Delta Cephei) तारे को देखकर डॉ. ए सी बैनर्जी को सैफीड  परिकल्पना प्रस्तुत करने की प्रेरणा सन 1942 में मिली । अन्तरिक्ष में कुछ तारे  फैलते -सिकुड़ते रहते हैं । इसे तारों का स्पन्दन (Pulsation) कहते है तथा ऐसे तारों को  सैफीड चर (Cepheid variable) कहते हैं । अन्तरिक्ष में तारा समूह में सैफीड तारे भी होते है ।  एक बार ऐसे ही सैफीड के निकट से एक भ्रमणशील तारा गुजरा तारे के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव से सैफीड में स्पदन बढ गया ।इस कारण इस तारे ने सैफिड का काफी पदार्थ अपनी ओर आकर्षित कर लिया। इसी पदार्थ के घनीभूत होने से ग्रहों  का निर्माण हुआ | सैफीड की शेष राशि सूर्य के रूप में रह गई जिसके चारों ओर ग्रह  परिक्रमा करने लगे । भ्रमणशील तारा तब तक अपने मार्ग पर काफी दूर जा चुका था।

ब्रह्माण्ड की विकासवादी या महाविस्फोटक परिकल्पना (Evolutionary -Bang Hypothesis of the Universe)

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 इस सिद्धान्त को बेल्जियम विद्वान लिमैत्रे (Limaitre) ने प्रस्तुत किया । इस सिद्धान्त म यह कल्पना की गई कि - प्रारम्भ में ब्रह्माण्ड में सारा पदार्थ एक अत्यन्त सघन एव विशालकाय आद्य-पदार्थ (Primordial Matter) में रूप में स्थित था, जिसमें भीषण विस्फोट होने के कारण ब्रमाण्ड में स्थित पदार्थ के कण अन्तरिक्ष में छितरा गये जिनसे वर्तमान ब्रह्माण्ड की रचना हुई है । हॉयल महोदय ने भी ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बारे में कुछ नये तथ्यों के आधार पर विकासवादी सिद्धान्त से सहमति प्रकट की । (Tata Institute of Fundamental Research, TIFR) के भारतीय विद्वान डॉ. गोविन्द स्वरूप एवं विजय कपाही भी 'बिग बेंग ' सिद्धान्त पर कार्य कर रहे हैं । उनके अनुसार लगभग 20 बिलियन वर्ष पूर्व ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति आदय पदार्थ से निर्मित एक विशालकाय आग के गोले (Fire Ball) के भीतर महाविस्फोट से हुई। संयुक्त राज्य अमेरिका में 'बिंग बेंग ' की दशाओं को उत्पन्न करने के लिए एक मॉडल तैयार किया गया है । बर्कले के वैज्ञानिकों ने भी अन्तरिक्ष में माइक्रो तरंग विकिरण का अध्ययन करने के लिए हीलियम बैलून का प्रयोग करते हुए 'बिंग बेंग ' सिद्धान्त का ही समर्थन किया है।
जेनेवा में स्थित यूरोपीय नाभिकीय अनुसंधान केन्द्र (CERN) में भी इस सिद्धान्त पर एक प्रयोग किया जा रहा है, जिसमें अनेक देशों के 5000 से अधिक वैज्ञानिक अनुसंधान में महाविस्फोटक सिद्धान्त की दशाएँ उत्पन्न करने में प्रयत्नशील हैं । महाविस्फोटक सिद्धान्त का वैज्ञानिक परीक्षण 10 सितम्बर 2008 को फ्रांस एवं स्विटजरलैण्ड की सीमा के पास जमीन से 100 मीटर नीचे दुनिया का सबसे महंगा (4.4 अरब पांउड) और शक्तिशाली वैज्ञानिक परीक्षण किया गया है । जिसका नाम 'सुपर एक्सपेरिमेन्ट' दिया गया है । इस एक्सपेरिमेन्ट में दुनिया के वैज्ञानिक धरती से 100 मीटर 'द लार्ज हैड्रान कोलाइडर (एल. एच सी.) नामक 27 कि मी. लम्बी एक मशीन के जरिये बिग को या ब्रह्माण्ड के पैदा होने की स्थिति को प्रयोगशाला में जीवंत करना चाहते है । मशीनों में कुछ खराबी आने के कारण कुछ समय के लिए इस प्रयोग को रोक दिया गया है । जब यह परीक्षण फिर से शुरू होगा तो अणु विध्वंसक एक तरह से टाइम मशीन बन जाएगा, जिससे इन सवालों के जवाब मिलेंगे : • ब्रह्माण्ड के जन्म के वक्त क्या मौजूद था? • कुछ पदार्थों का द्रव्यमान क्यों नहीं होता? • डार्क मेटर की प्रकृति क्या है? • क्या अन्तरिक्ष का कोई ऐसा आयाम है जो अब भी हमारी पहुँच से बाहर है?
इससे यह पता चल पायेगा कि जब ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया था तब क्या हुआ था।

लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर (एलएचसी) 27 किलोमीटर के एक रिंग में प्रोटोन्स के दो बीम्स छोड़ेगा | ये बीम्स लाइट 99.99 फीसदी स्पीड पर आपस में टकराएगी । इसके 9300 मैग्नेटस-271
डिग्री सेंटिग्रेड तापमान के बीच पार्टिकल्स को वैक्युम में गाइड करेंगे । इससे कुछ क्षण के लिए वैसी ही स्थिति बनेगी जैसी 14 अरब साल पहले ब्रह्माण्ड के जन्म व बिग-बैंग के समय थी ।


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